धूप से रूठी चांदनी - एक परिपक्व कवि-मन की संवेदना देवी नागरानी

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कविता एक तजुर्बा है, एक ख़्वाब है, एक भाव है | जब दिल के अंतर्मन में मनोभावों का तहलका मचता है, मन डांवाडोल होता है या ख़ुशी की लहरें अपने बांध को उलांघ जाती है तो कविता बन जाती है | कविता अन्दर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है | कविता शब्दों में अपना आकार पाती है, सोच के तिनके बुनकर, बुनावट और कसावट में अपने आप को प्रकट करती है | रचनात्मक सृष्टि के लिए शब्द बहुत जरुरी है, जिनको करीने से सजाकर, सवांरकर एक भव्य भवन का निर्माण किया जाता है | दूसरी विशेषता जो कविता को मुखरित करती है वह है शब्दों को जीवंत बनाने की कलात्मक अभिव्यक्ति जो एक रीति का प्रयोग करने पर रचनाकार को कसौटी पर खरा उतारती है | इन्हीं सभी गुणों की नींव पर निर्माण करती, अपनी देश-परदेश की भूली-बिसरी यादों को जीवंत करती, जानी मानी प्रवासी रचनाकार सुधा ओम ढींगरा की सुन्दर और भावनात्मक कविताएँ " धूप से रूठी चांदनी " काव्य संग्रह में हमारे रूबरू हुई है | आज की व्यवसायिक परिस्थितियों में आदमी अपनी उलझनों के दायरे से निकलने के प्रयासों में और गहरे धंसता चला जा रहा है | ऐसे दौर में मनोबल में सकारात्मक संचार कराती उनकी कविता "मैं दीप बाँटती हूँ" अपने सर्वोत्तम दायित्व से हमें मालामाल करती है--- "मैं दीप बाँटती हूँ / इनमें तेल है मुहब्बत का/ बाती है प्यार की/ और लौ है प्रेम की / रौशनी करती है जो हर अंधियारे ह्रदय और मस्तिक्ष को | निराला जी के शब्दों में "भावनाएं शब्द-रचना द्वारा अपना विशिष्ट अर्थ तथा चित्र द्वारा परिस्पुष्ट होती है | अर्थ शब्दों के द्वारा और शब्द वर्णों द्वारा" देखिये इसी कविता की एक कड़ी कैसे भाषा के माध्यम से भावो के रत्नों का प्रकाश भरती जा रही है | उनकी दावे दारी के तेवर देखिये: "मैं दीप लेती भी हूँ/ पुराने टूटे-पुटे नफरत, ईर्ष्या, द्वेष की दीप जिनमें तेल है/ कलह-कलेश का/बाती है बैर-विरोध की लौ करती है जिनकी जग- अँधियारा सुधाजी, एक बहु आयामी रचनाकार के रूप में हिंदी जगत को अपनी रचनात्मक ऊर्जा से परिचित कराती आ रही है | उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का विस्तार उनकी कहानियाँ, इंटरव्यू, अनुवादित उपन्यास हर क्षेत्र में अपनी पहचान पा चुका है और अब ८० कविताओं का यह संग्रह अपने बहु विध वैशिष्टिय से हमारा ध्यान बरबस आकृष्ट कर रहा है | इनकी रचनाएँ आपाधापी वाले संघर्षों से गुज़रते बीहड़ संसार के बीच एक आत्मीयता का बोध कराती हैं | "आज खड़ी हूँ..../ईश्वर और स्वयं की पहचान की ऊहापोह में......" इनकी कवितात्मक ऊर्जा में आवेग है, एक परिपक्व कवि मन की गहन संवेदना, चिंतात्मक और सामाजिक बोध का जीवंत बोध शब्दों के बीच से झांकता हुआ कह रहा है : "अब दाग लगे दामन पर जितने, सह लुंगी दुनिया जो कहे झेलूंगी/ तू जो कहे ....चुप रहूंगी अपनी लाश को काँधे पर उठाये/ वीरानों में दो काँधे और ढूँढूँगी / जो उसे मरघट तक पहुंचा दे......." दर्द ही वो है जो मानव-मन की पीड़ा का मंथन करता है और फिर मंथन का फल तो सभी को समय के दायरे में रहकर चखना पड़ता है | कौन है जो बच पाया है? कौन है जो ज़ायके से वंचित रहा है? सुधाजी ने बड़ी संवेदना से समाज में पनपते अमानवीय कोण की प्रबलता को दर्शाया है | जहाँ नारी की पहचान घर की चौखट तक ही रह गई है, अपने जिम्मेदारियों की सांकल से बंधी हुई वह नारी जकड़ी हुई अपने तन की कैद में, घर की कैद में.. " दुनिया ने जिसे सिर्फ औरत / और तूने महज़ बच्चों की माँ समझा / " जिन्दगी की सारी चुनौतीयों से रूबरू कराती सुधाजी की कलम अपनी सशक्तता का परिचय दे रही है | जो कवि अपने शीश-महल में बैठकर काव्य सृजन करते है वे तानाशाहों के अत्याचारों से वाकिफ़ तो है, लेकिन मनुष्य की पीड़ा और वेदना उन्हें द्रवित नहीं करती | धरती पर न जाने कितने लोग कराहते हैं, कितना लहू बहता रहता है, कितनी साँसों में घुटन भर दी जाती है, ज़ुल्मतों का दहकता हुआ साया जब कवि मन पर अपनी छाप छोड़ जाता है, तो कलम से निकले शब्द जीवंत हो जाते हैं, खामोशियों से सम्वाद करते हैं, उन पीड़ाओं का, जिनको तनमन से भोगा ,सहा. जहाँ वेदना कराह उठती है वहीँ उनकी बानगी में हर एहसास धीमे से थपथपाता है, टटोलता है और उलझे हुए प्रश्नों का जवाब तलब करता है: "आतंकवादी हमला हो/ या जातिवाद की लड़ाई / रूह, वापिस देश अपने भाग जाती है." और फिर कटाक्ष करती शब्दावली का रूप देखिये : "तोड़ा था पुजारी ने /मंदिर के भरम को जब सिक्के लिए हाथ में बेईमान मिल गए" जीवन सिर्फ जीने और भोगने का नाम नहीं, समझने और समझाने का विषय भी है | इसी काव्य सुधा में उनके उर्वर मस्तिष्क की अभिनव उपज है उनकी अनूठी रचना (जिसको सुनने का मौका मुझे उनके रूबरू ले गया )जिससे उनकी सम्पूर्ण कविताओं की स्तरीयता एवं विलक्ष्णता का अनुभव सहज ही लगाया जा सकता है."प्रतिविम्ब "में उठाये प्रसंग समाजिक, पारिवारिक ---- चिंतन को पारदर्शी बिम्ब बनकर सामने आये.. "मैं आप का ही प्रतिबिम्ब हूँ. बलात्कार से पीड़ित कोई बाला हो/ या सवर्णों से पिटा कोई दलित ... मेरा खून उसी तरह खौलता है/ जैसे आप भड़कते थे |" लेखन कला अपनी पूर्णता तब ही प्रकट कर पाती है जब भाषा या शैली अपने तेवरों के प्रयोग से कल्पना और यथार्थ का अंतर मिटा दे... अपने परिवेश में जो देखा गया, महसूस किया गया और भोगा गया, उसे विषय-वस्तु बनाकर सुधाजी अपनी रचनाओं द्वारा पाठक को अनुभव सागर से जोड़ लेती हैं | उनकी अनेक रचनाएँ आप बीती से जग बीती तक का सफ़र करती हुई, हद की सरहदों तक को पार करने की कोशिश में कहती है अपनी कविता "शहीद" में "नेताओ और धर्म के लिए, इन्सान नहीं सिर्फ सिपाही शहीद हुआ | " हर रचना अपने धर्म क्षेत्र के दायरे में घूमती है, कहीं छटपटाती है, और कहीं- कहीं मंजिल के पास आते- आते दम तोड़ देती है | ऐसी सशक्त कविताएँ है "बेरुखी, समाज, मुड़ कर देखा, परदेस की धूप, खुश हूँ मैं ,और देस -परदेस की व्यथा- गाथा को बहुत सुन्दरता से माँ के नाम चिट्ठी में लिख भेजा सन्देश उनकी जुबानी सुनें : "परदेस से चिट्ठी आई, माँ की आँख भर आई लिखा था खुश हूँ मैं चिंता न करना घर के लिया है किश्तों पर/ कार ले ली है किश्तों पर फर्नीचर ले लिया किश्तों पर / यहाँ तो सब कुछ ख़रीदा जाता है किश्तों पर" सोच की हर सलवट पीड़ा से भीगी हुई, आँख फिर भी नम नहीं | ऐसी अभिभूत करती हुई रचनाओ के लिए सुधाजी को बधाई एवं शुभ कामनाएँ | शिवना प्रकाशन की कई कृतियों में से यह एक अनूठी कृति अब भारत और विदेश के बीच की पुख्ता कड़ी बनी है श्रेय है शिवना प्रकाशन को, हर प्रयास को जो हर कदम आगे और आगे सफलता की ओर बढ़ रहा है ! काव्य संग्रह :धूप से रूठी चांदनी, कवित्री :डॉ सुधा ओम ढींगरा पन्ने :११२ मूल्य :३०० रु प्रकाशक :शिवना प्रकाशन, P.C.Lab, Samart Complex Basement, Bus Stand, Sehore-466001. U.P.

http://srijangatha.com/Pustkayan1_6Dec2k10

साधना की एक उपज "एक टहलती हुई खुशबू" जिसमें उपासक आत्मा के अधर से कह रहा है प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे - देवी नागरानी

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साधना की एक उपज "एक टहलती हुई खुशबू" जिसमें उपासक आत्मा के अधर से कह रहा है
प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे
कोमल भावनाओं की कलियों को चुनचुन कर शब्दों की तार में पिरोने वाली मालिन- कवियित्री मोनिका हठीला से " एक खुशबू टहलती हुई" के मध्यम से मेरा पहला परिचय हुआ. ऐसा बहुत कम होता है कि पहली बार कुछ पढ़ो और वह अनुभूति दिल को छूती हुई गहरे उतर जाये. पर सच मानिये सीहौर के काव्य के संस्कारों ने जो खुशबू बिखेरी है वह टहलती हुई जिस दिशा में जाती है, वहीँ की होकर रह जाती है. हवाओं में, सांसों में, सशक्त शब्दावली की सौंधी- सौंधी महक रम सी जाती है.

यूं ही आवारा भटकते ये हवाओं के हुजूम

फ़िज़ूल हैं जो अगर झूम के बरसात हो

पढ़ते ही अक्स उभर आते है काले-काले बादलों के, रिमझिम-रिमझिम रक्स करती हुई बारिश के और धरती की मिटटी के महक के.

कहा किसने इन कोरे कागज़ों से कुछ नहीं मिलता

कभी शब्दों में घुल-मिल जाती है मल्हार की खुशबू..स्वरचित

ऐसी ही महक मोनिका हठीला जी की कल-कल बहती काव्य सरिता से आ रही है. उनकी रचनात्मक गुलिस्तान के शब्द सुमन अनुपम सुन्दरता से हर श्रृंगार रस से ओत -प्रोत आँखों से उतर कर, रूह में बस जाने को आतुर है. मदमाती उनकी बानगी हमसे गुफ़्तार करती है-

कलियों के मधुबन से

गीतों के चाँद चुने

सिन्दूरी क्षितिजों से

सपने के तार बुने

कविता तो आत्मा की झंकार है. कवि की रचना सह्रदय को अपनी रचना लगने लगे तो रचना की यही सबसे बड़ी सफ़लता है और यही उसकी सम्प्रेश्नीयता. लेखन कला ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते है, परिश्रम का खाध जुगाड़ करते हैं, और सोच से सींचते है, तब कहीं जाकर इनमें इन्द्रधनुषी शब्द-सुमन निखरते हैं और महकते हैं.

काव्य के इस सौंदर्य -बोध को परखने के लिए भावुक पारखी ह्रदय की आवश्यकता है और यह टकसाल मोनिका जी को वरसे में मिली है. उनके अपने शब्दों में " सीहौर में कविता संस्कार के रूप में मिलती है और मुझे तो रक्त के संस्कार के रूप में मिली है अपने पिताश्री रमेश हठीला जी से और गुरु श्री नारायण कासट जी से " और इस विरासत को बड़ी संजीदगी से वे आशीर्वाद स्वरुप संजोकर रखती आ रहीं हैं. तभी तो उनकी आत्मा के अधर कह उठते हैं-

गीतों में बसते प्राण, मुझे गाने दो

कविता मेरा ईमान, मुझे गाने दो.

कवि बिहारी आम मुकुल जी का एक दोहा जो मुझे हमेशा लुभाता रहा है, इस सन्दर्भ में बड़ा ही उपयुक्त है; रस और महक का वर्णन करता काव्य कलश से छलकता हुआ मन को भीने-भीने अहसास से घेर लेता है -

छकि, रसान सौरभ सने, मधुर माधवी गंध

ठौर-ठौर झूमत झपट, भौंर -भौंर मधु-अंध

मोनिका जी की काव्य उपज में विचार और भाषा का एक संतुलित मेल-मेलाप आकर्षित करता है. शब्दों की सरलतम अभिव्यक्ति मन को सरोबार करती है: सादगी, सरलता, का एक नमूना पेश है--

यादों की बद्री - कर/ मेरे घर मेहमान हुई

जैसे यादों की वादी में कोई बे-आसमाँ घर हो, जिसमें हवाएं अपनी तमाम खुशबू के साथ भीतर आकर बसी हों, बिना किसी ख़बर के, बिना किसी सन्देश के.....

ख़त लिखते कोई पैग़ाम भिजवाते

ऐसे मौसम में कम से कम बात तो कर लेते

जाने ये कैसा अपनापन है जो मोनिका जी की रचनायें किसी को अजनबी रहने ही नहीं देती ! खामोशियों में भी गुफ़्तार बरक़रार रखतीं हैं सहज सहज शब्दों में--

मैंने अपना मुक़द्दर स्वयं पढ़ लिया

मेरी तक़दीर है मेरे गीत और ग़ज़ल

ये रूप झर रहा है मधुयामिनी में छनकर

इस रूप में नहाकर इक दिन ज़िन्दगी लिखूंगी ग़ज़ल

रचनात्मक भव्य भवन की नींव "एक खुसबू टहलती हुई" उनकी कुशलता का परिचय है, जिसमें मोनिका जी भावनात्मक शब्दावली की ईंटें करीने से वे सजाकर , अपने ही निर्माण की शिल्पकार बन गयी है. ऐसे काव्य के सुंदर सुमन इस गुलिस्तान में खिलते रहें, साथ साथ तन्मय करती कल कल बहती सुधी पाटकों को भाव विभोर करती रहे इसी अभिनन्दन एवं शुभकामनाओं के साथ ..

देवी नागरानी, ९-दी कॉर्नर व्यू सोसाइटी, १५/३३ रोड, बंदर, मुंबई ५०. फ़ोन ९८६७८५५७५१/

dnangrani@gmail.com

काव्य-संग्रह : एल खुशबू टहलती हुई, लेखिका: मोनिका हठीला, पन्ने; १०४, मूल्य: रु.२५०. प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, प़ी. सी-.लैब,सम्राट काम्प्लेक्स, सीहौर ४६६००१.