कादम्बिनी सितम्‍बर 2011 में रजनी नैयर मल्‍होत्रा की पुस्‍तक स्‍वप्‍न मरते नहीं पर डॉ. कुमार विश्‍वास की समीक्षा ।

kumar

कुछ विचार संगीता स्‍वरूप गीत जी की पुस्‍तक उजला आसमां के बारे में ।

ujla aasman (1)

कविता प्रेमियों के लिए एक रत्नकोश  : शिखा वार्ष्णेय

संगीता स्वरुप की कवितायेँ कल्पना ,भावनाओं ,व्यावहारिकता और यथार्थ का अनूठा संगम हैं .जहाँ "पीले फूल ,"छुअन" सरीखी कवितायेँ खूबसूरत भावनाओं की परकाष्ठा  को छूती हैं वहीँ" सुर्खी एक दिन की "और "वृद्ध आश्रम" जैसी कवितायेँ यथार्थ के कठोर धरातल से परिचय कराती हैं.

जहाँ एक ओर "सच बताना गांधारी" ,और" कृष्ण आओ तुम एक बार" व्यावहारिकता पर चतुराई से संतुलित बहस करती प्रतीत होती हैं वहीं "स्वयं सिद्धा बन जाओ" और "है चेतावनी" समाज की कुरीतियों को तीखी चेतावनी देती हैं.

सधे हुए खूबसूरत शब्दों में पिरोई हुई ये कव्यशाला निसंदेह कविता प्रेमियों के लिए एक रत्नकोश है, जो हिंदी कविताओं को आम नागरिक के ह्रदय की तह तक पहुंचाता है.

शिखा वार्ष्णेय

मास्टर ऑफ जर्नलिज्म. मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी

स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक लन्दन

ujla aasman (2)

हिंदी काव्‍य संसार को ये कविताएं समृद्ध करेंगी : मनोज कुमार  

कहा जाता है कि कुछ लोगों में, खासकर महिलाओं में छठी इंद्रिय भी होती है। छहों इंद्रियों को निरूपित करती, जन जीवन से रूबरू होती इस काव्‍य संग्रह में संगीता स्वरूप जी की छह दर्जन कविताएं अपनी सहज संप्रेषणीयता और ग्राह्यता से पाठकों की भावनाओं का दर्पण बन गई है। हम इसमें अपने जीवन के रूप स्‍पष्‍ट देख पाते हैं।

इन कविताओं से मानवीय संबंधों की गरिमा और मानवमूल्‍यों की परम्‍परा को जहां एक ओर जीवित रखा गया है वहीं दूसरी ओर जो कुछ सत्‍व, सार्थकता और तीखी धार है वह जीवन की जमीन से उठी इसी परंपरा की देन है।

इनके व्‍यक्तित्‍व में जहां तीखी धार सा पैनापन है वहीं दूसरी तरफ रूई के फाहे जैसी नर्मी। इन दोनों को जोड़ती सरकडे सा लचीला मन है इनका! इसीलिए परम सहजता से वह अपना सारा संतुलन बनाए रखती है, जो न सिर्फ उनके जीवन में दिखती है बल्कि रचनाओं में भी इनकी सहज अभिव्‍यक्ति मन को भाती है। जिंदगी में जो भी अनुभव किया वह इनकी रचनाओं में प्रकट होता है। कोई मुखौटा लगाकर ये अपनी बात नहीं रखती। समाज के प्रति दायित्‍वबोध रचनाओं में स्‍पष्‍ट है। यह भी स्‍पष्‍ट है कि नैतिकता और ईमानदारी इनके हथियार हैं।

इस संग्रह की कविताओं में कहीं समकालीन विसंगतियों पर उन्‍होंने दो-टूक राय रखी है, तो कहीं उनमें एकांत और संवेदशील मन का संवाद है, और कहीं लोगों के दुख-दर्द पर मलहम लगाते स्‍वर। अनुभव और कल्‍पना का ऐसा मिश्रण तैयार किया है जो हमारे मन-आंगन को भिगो जाता है। वहीं दूसरी ओर जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए शब्‍दों की नई योजना भी गढ़ी है इन्‍होंने। इन कविताओं में जीवन के प्रगाढ़ रंगो की अभिव्‍यंजना है। अपने आसपास के गहन तिमिर को मोमबती की तरह आलोकित करते हैं कविताओं के शब्‍द।

इस संकलन की कविताएं पिछले एक वर्ष में अंतरजाल पर प्रकाशित होती रही है। मैं इनके सृजन का साक्षी भी रहा हूँ और पाठक भी! अंतरजाल पर प्रकाशित हो कर काव्य-रसिकों के दरवाजों पर दस्‍तक दे चुकी ये कविताएं इनकी काव्‍य-कला साधना की परिपक्‍वता का इशारा कर चुकी है। इस काव्‍य संग्रह का प्रकाशन मैं एक सुखद घटना मानता हूँ। हिंदी काव्‍य संसार को ये कविताएं समृद्ध करेंगी ऐसा मेरा विश्‍वास है और काव्‍य-प्रेमियों के बीच अपनी स्‍पष्‍ट पहचान बनाएंगी।

मनोज कुमार

निदेशक (रक्षा मंत्रालय के आयुध निर्माण बोर्ड, कोलकाता)

समीर की इसी अद्भुत शैली के पाठक कायल हैं -राकेश खंडेलवाल

dekh loon to chaloon (2)

कहानियाँ जिंदगी के हर मोड़ पर बिखरी हुईं हैं। तलाश रहती है उन्हें किसी पारखी नार की जो उन्हें चुन सके और करीने से शब्दों का जामा पहना कर उन्हें सजा सके। जिंदगी के सफर में चलते हुए हर राही के पाँवों को चूमने के लिए बेकरार ये कहानियाँ उसके आगे पीछे दाएँ बाएँ और ऊपर नीचे हर ओर हैं और अधिकाँश मुसांफिर इनसे अनजाने अपनी धुन में अनदेखी मंजि़ल की ओर दौड़ते रहते हैं।
जिंदगी के कारवाँ में कुछ राही ऐसे भी होते हैं जिनकी हर बात अलग होती है। उनका अपना नारिया और हर चीज को हर जाविये से देखने की खुसूसियत रहती है। समीर एक ऐसे ही मुसांफिर हैं जो जिंदगी के हर कदम से उठा उठा कर कहानियाँ चुनते हैं और बड़ी खूबसूरती से उन्हें सबके सामने पेश करते हैं।  कहानियों का ताना बाना बुनने में जो महारत समीर को हासिल है उसे शब्दों में बयान करना असम्भव है। सीधे साधे शब्दों में वे पाठक को अपने साथ सफर पर ले चलते हैं और बड़ी सहजता से गंभीर मसलों और मुद्दों पर अपनी बारीकी का अंदाज़ पाठक को इस तरह बताते हैं की सिवाय वाह और आह कहने के उसके पास कोई चारा नहीं रहता।
प्रस्तुत कथानक को पढ़ते पढ़ते यकायक महसूस नहीं होता और फिर यकायक महसूस भी होता है की आज के समाज के मुद्दे, बाल मादूरी, समलैंगिकता, पारिवारिक वातावरण, सामंजस्य, विचलित मनोवृत्तियाँ और ओढ़ी हुई कृत्रिमाताएँ किस कदर सामने आती हैं और उन्हें किस तरह प्रस्तुत लिया जाता है की वे कहीं तो जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाती हैं और कहीं समाज के माथे पर लगे एक काले दांग की तरह नार आती हैं।
समीर की इस अद्भुत शैली के सभी पाठक कायल रहे हैं। समीर के इस कथानक से भी उन्हें अपेक्षाकृत अधिक संतोष मिलेगा ऐसा मेरा विश्वास है। मैंने जब इसे पढ़ना शुरू किया तो एक ही बैठक में पूरा पढ़ने के लिए मजबूर हो गया क्योंकि कहानी इस कदर बहा कर आपको अपने साथ ले चलती है की इसे बीच में छोड़ना संभव ही नहीं है। समीर से आगे भी और विस्तृत कथाओं की अपेक्षा है।  शुभकामनाओं सहित।
                       -राकेश खंडेलवाल

धूप से रूठी चांदनी - एक परिपक्व कवि-मन की संवेदना देवी नागरानी

Sudha Om dhoop se roothi chandni (2) dn_thumbnail

कविता एक तजुर्बा है, एक ख़्वाब है, एक भाव है | जब दिल के अंतर्मन में मनोभावों का तहलका मचता है, मन डांवाडोल होता है या ख़ुशी की लहरें अपने बांध को उलांघ जाती है तो कविता बन जाती है | कविता अन्दर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है | कविता शब्दों में अपना आकार पाती है, सोच के तिनके बुनकर, बुनावट और कसावट में अपने आप को प्रकट करती है | रचनात्मक सृष्टि के लिए शब्द बहुत जरुरी है, जिनको करीने से सजाकर, सवांरकर एक भव्य भवन का निर्माण किया जाता है | दूसरी विशेषता जो कविता को मुखरित करती है वह है शब्दों को जीवंत बनाने की कलात्मक अभिव्यक्ति जो एक रीति का प्रयोग करने पर रचनाकार को कसौटी पर खरा उतारती है | इन्हीं सभी गुणों की नींव पर निर्माण करती, अपनी देश-परदेश की भूली-बिसरी यादों को जीवंत करती, जानी मानी प्रवासी रचनाकार सुधा ओम ढींगरा की सुन्दर और भावनात्मक कविताएँ " धूप से रूठी चांदनी " काव्य संग्रह में हमारे रूबरू हुई है | आज की व्यवसायिक परिस्थितियों में आदमी अपनी उलझनों के दायरे से निकलने के प्रयासों में और गहरे धंसता चला जा रहा है | ऐसे दौर में मनोबल में सकारात्मक संचार कराती उनकी कविता "मैं दीप बाँटती हूँ" अपने सर्वोत्तम दायित्व से हमें मालामाल करती है--- "मैं दीप बाँटती हूँ / इनमें तेल है मुहब्बत का/ बाती है प्यार की/ और लौ है प्रेम की / रौशनी करती है जो हर अंधियारे ह्रदय और मस्तिक्ष को | निराला जी के शब्दों में "भावनाएं शब्द-रचना द्वारा अपना विशिष्ट अर्थ तथा चित्र द्वारा परिस्पुष्ट होती है | अर्थ शब्दों के द्वारा और शब्द वर्णों द्वारा" देखिये इसी कविता की एक कड़ी कैसे भाषा के माध्यम से भावो के रत्नों का प्रकाश भरती जा रही है | उनकी दावे दारी के तेवर देखिये: "मैं दीप लेती भी हूँ/ पुराने टूटे-पुटे नफरत, ईर्ष्या, द्वेष की दीप जिनमें तेल है/ कलह-कलेश का/बाती है बैर-विरोध की लौ करती है जिनकी जग- अँधियारा सुधाजी, एक बहु आयामी रचनाकार के रूप में हिंदी जगत को अपनी रचनात्मक ऊर्जा से परिचित कराती आ रही है | उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का विस्तार उनकी कहानियाँ, इंटरव्यू, अनुवादित उपन्यास हर क्षेत्र में अपनी पहचान पा चुका है और अब ८० कविताओं का यह संग्रह अपने बहु विध वैशिष्टिय से हमारा ध्यान बरबस आकृष्ट कर रहा है | इनकी रचनाएँ आपाधापी वाले संघर्षों से गुज़रते बीहड़ संसार के बीच एक आत्मीयता का बोध कराती हैं | "आज खड़ी हूँ..../ईश्वर और स्वयं की पहचान की ऊहापोह में......" इनकी कवितात्मक ऊर्जा में आवेग है, एक परिपक्व कवि मन की गहन संवेदना, चिंतात्मक और सामाजिक बोध का जीवंत बोध शब्दों के बीच से झांकता हुआ कह रहा है : "अब दाग लगे दामन पर जितने, सह लुंगी दुनिया जो कहे झेलूंगी/ तू जो कहे ....चुप रहूंगी अपनी लाश को काँधे पर उठाये/ वीरानों में दो काँधे और ढूँढूँगी / जो उसे मरघट तक पहुंचा दे......." दर्द ही वो है जो मानव-मन की पीड़ा का मंथन करता है और फिर मंथन का फल तो सभी को समय के दायरे में रहकर चखना पड़ता है | कौन है जो बच पाया है? कौन है जो ज़ायके से वंचित रहा है? सुधाजी ने बड़ी संवेदना से समाज में पनपते अमानवीय कोण की प्रबलता को दर्शाया है | जहाँ नारी की पहचान घर की चौखट तक ही रह गई है, अपने जिम्मेदारियों की सांकल से बंधी हुई वह नारी जकड़ी हुई अपने तन की कैद में, घर की कैद में.. " दुनिया ने जिसे सिर्फ औरत / और तूने महज़ बच्चों की माँ समझा / " जिन्दगी की सारी चुनौतीयों से रूबरू कराती सुधाजी की कलम अपनी सशक्तता का परिचय दे रही है | जो कवि अपने शीश-महल में बैठकर काव्य सृजन करते है वे तानाशाहों के अत्याचारों से वाकिफ़ तो है, लेकिन मनुष्य की पीड़ा और वेदना उन्हें द्रवित नहीं करती | धरती पर न जाने कितने लोग कराहते हैं, कितना लहू बहता रहता है, कितनी साँसों में घुटन भर दी जाती है, ज़ुल्मतों का दहकता हुआ साया जब कवि मन पर अपनी छाप छोड़ जाता है, तो कलम से निकले शब्द जीवंत हो जाते हैं, खामोशियों से सम्वाद करते हैं, उन पीड़ाओं का, जिनको तनमन से भोगा ,सहा. जहाँ वेदना कराह उठती है वहीँ उनकी बानगी में हर एहसास धीमे से थपथपाता है, टटोलता है और उलझे हुए प्रश्नों का जवाब तलब करता है: "आतंकवादी हमला हो/ या जातिवाद की लड़ाई / रूह, वापिस देश अपने भाग जाती है." और फिर कटाक्ष करती शब्दावली का रूप देखिये : "तोड़ा था पुजारी ने /मंदिर के भरम को जब सिक्के लिए हाथ में बेईमान मिल गए" जीवन सिर्फ जीने और भोगने का नाम नहीं, समझने और समझाने का विषय भी है | इसी काव्य सुधा में उनके उर्वर मस्तिष्क की अभिनव उपज है उनकी अनूठी रचना (जिसको सुनने का मौका मुझे उनके रूबरू ले गया )जिससे उनकी सम्पूर्ण कविताओं की स्तरीयता एवं विलक्ष्णता का अनुभव सहज ही लगाया जा सकता है."प्रतिविम्ब "में उठाये प्रसंग समाजिक, पारिवारिक ---- चिंतन को पारदर्शी बिम्ब बनकर सामने आये.. "मैं आप का ही प्रतिबिम्ब हूँ. बलात्कार से पीड़ित कोई बाला हो/ या सवर्णों से पिटा कोई दलित ... मेरा खून उसी तरह खौलता है/ जैसे आप भड़कते थे |" लेखन कला अपनी पूर्णता तब ही प्रकट कर पाती है जब भाषा या शैली अपने तेवरों के प्रयोग से कल्पना और यथार्थ का अंतर मिटा दे... अपने परिवेश में जो देखा गया, महसूस किया गया और भोगा गया, उसे विषय-वस्तु बनाकर सुधाजी अपनी रचनाओं द्वारा पाठक को अनुभव सागर से जोड़ लेती हैं | उनकी अनेक रचनाएँ आप बीती से जग बीती तक का सफ़र करती हुई, हद की सरहदों तक को पार करने की कोशिश में कहती है अपनी कविता "शहीद" में "नेताओ और धर्म के लिए, इन्सान नहीं सिर्फ सिपाही शहीद हुआ | " हर रचना अपने धर्म क्षेत्र के दायरे में घूमती है, कहीं छटपटाती है, और कहीं- कहीं मंजिल के पास आते- आते दम तोड़ देती है | ऐसी सशक्त कविताएँ है "बेरुखी, समाज, मुड़ कर देखा, परदेस की धूप, खुश हूँ मैं ,और देस -परदेस की व्यथा- गाथा को बहुत सुन्दरता से माँ के नाम चिट्ठी में लिख भेजा सन्देश उनकी जुबानी सुनें : "परदेस से चिट्ठी आई, माँ की आँख भर आई लिखा था खुश हूँ मैं चिंता न करना घर के लिया है किश्तों पर/ कार ले ली है किश्तों पर फर्नीचर ले लिया किश्तों पर / यहाँ तो सब कुछ ख़रीदा जाता है किश्तों पर" सोच की हर सलवट पीड़ा से भीगी हुई, आँख फिर भी नम नहीं | ऐसी अभिभूत करती हुई रचनाओ के लिए सुधाजी को बधाई एवं शुभ कामनाएँ | शिवना प्रकाशन की कई कृतियों में से यह एक अनूठी कृति अब भारत और विदेश के बीच की पुख्ता कड़ी बनी है श्रेय है शिवना प्रकाशन को, हर प्रयास को जो हर कदम आगे और आगे सफलता की ओर बढ़ रहा है ! काव्य संग्रह :धूप से रूठी चांदनी, कवित्री :डॉ सुधा ओम ढींगरा पन्ने :११२ मूल्य :३०० रु प्रकाशक :शिवना प्रकाशन, P.C.Lab, Samart Complex Basement, Bus Stand, Sehore-466001. U.P.

http://srijangatha.com/Pustkayan1_6Dec2k10

साधना की एक उपज "एक टहलती हुई खुशबू" जिसमें उपासक आत्मा के अधर से कह रहा है प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे - देवी नागरानी

Devi Nagrani (Custom)[3] ek khushboo tehlti rahi (1) monica

साधना की एक उपज "एक टहलती हुई खुशबू" जिसमें उपासक आत्मा के अधर से कह रहा है
प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे
कोमल भावनाओं की कलियों को चुनचुन कर शब्दों की तार में पिरोने वाली मालिन- कवियित्री मोनिका हठीला से " एक खुशबू टहलती हुई" के मध्यम से मेरा पहला परिचय हुआ. ऐसा बहुत कम होता है कि पहली बार कुछ पढ़ो और वह अनुभूति दिल को छूती हुई गहरे उतर जाये. पर सच मानिये सीहौर के काव्य के संस्कारों ने जो खुशबू बिखेरी है वह टहलती हुई जिस दिशा में जाती है, वहीँ की होकर रह जाती है. हवाओं में, सांसों में, सशक्त शब्दावली की सौंधी- सौंधी महक रम सी जाती है.

यूं ही आवारा भटकते ये हवाओं के हुजूम

फ़िज़ूल हैं जो अगर झूम के बरसात हो

पढ़ते ही अक्स उभर आते है काले-काले बादलों के, रिमझिम-रिमझिम रक्स करती हुई बारिश के और धरती की मिटटी के महक के.

कहा किसने इन कोरे कागज़ों से कुछ नहीं मिलता

कभी शब्दों में घुल-मिल जाती है मल्हार की खुशबू..स्वरचित

ऐसी ही महक मोनिका हठीला जी की कल-कल बहती काव्य सरिता से आ रही है. उनकी रचनात्मक गुलिस्तान के शब्द सुमन अनुपम सुन्दरता से हर श्रृंगार रस से ओत -प्रोत आँखों से उतर कर, रूह में बस जाने को आतुर है. मदमाती उनकी बानगी हमसे गुफ़्तार करती है-

कलियों के मधुबन से

गीतों के चाँद चुने

सिन्दूरी क्षितिजों से

सपने के तार बुने

कविता तो आत्मा की झंकार है. कवि की रचना सह्रदय को अपनी रचना लगने लगे तो रचना की यही सबसे बड़ी सफ़लता है और यही उसकी सम्प्रेश्नीयता. लेखन कला ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते है, परिश्रम का खाध जुगाड़ करते हैं, और सोच से सींचते है, तब कहीं जाकर इनमें इन्द्रधनुषी शब्द-सुमन निखरते हैं और महकते हैं.

काव्य के इस सौंदर्य -बोध को परखने के लिए भावुक पारखी ह्रदय की आवश्यकता है और यह टकसाल मोनिका जी को वरसे में मिली है. उनके अपने शब्दों में " सीहौर में कविता संस्कार के रूप में मिलती है और मुझे तो रक्त के संस्कार के रूप में मिली है अपने पिताश्री रमेश हठीला जी से और गुरु श्री नारायण कासट जी से " और इस विरासत को बड़ी संजीदगी से वे आशीर्वाद स्वरुप संजोकर रखती आ रहीं हैं. तभी तो उनकी आत्मा के अधर कह उठते हैं-

गीतों में बसते प्राण, मुझे गाने दो

कविता मेरा ईमान, मुझे गाने दो.

कवि बिहारी आम मुकुल जी का एक दोहा जो मुझे हमेशा लुभाता रहा है, इस सन्दर्भ में बड़ा ही उपयुक्त है; रस और महक का वर्णन करता काव्य कलश से छलकता हुआ मन को भीने-भीने अहसास से घेर लेता है -

छकि, रसान सौरभ सने, मधुर माधवी गंध

ठौर-ठौर झूमत झपट, भौंर -भौंर मधु-अंध

मोनिका जी की काव्य उपज में विचार और भाषा का एक संतुलित मेल-मेलाप आकर्षित करता है. शब्दों की सरलतम अभिव्यक्ति मन को सरोबार करती है: सादगी, सरलता, का एक नमूना पेश है--

यादों की बद्री - कर/ मेरे घर मेहमान हुई

जैसे यादों की वादी में कोई बे-आसमाँ घर हो, जिसमें हवाएं अपनी तमाम खुशबू के साथ भीतर आकर बसी हों, बिना किसी ख़बर के, बिना किसी सन्देश के.....

ख़त लिखते कोई पैग़ाम भिजवाते

ऐसे मौसम में कम से कम बात तो कर लेते

जाने ये कैसा अपनापन है जो मोनिका जी की रचनायें किसी को अजनबी रहने ही नहीं देती ! खामोशियों में भी गुफ़्तार बरक़रार रखतीं हैं सहज सहज शब्दों में--

मैंने अपना मुक़द्दर स्वयं पढ़ लिया

मेरी तक़दीर है मेरे गीत और ग़ज़ल

ये रूप झर रहा है मधुयामिनी में छनकर

इस रूप में नहाकर इक दिन ज़िन्दगी लिखूंगी ग़ज़ल

रचनात्मक भव्य भवन की नींव "एक खुसबू टहलती हुई" उनकी कुशलता का परिचय है, जिसमें मोनिका जी भावनात्मक शब्दावली की ईंटें करीने से वे सजाकर , अपने ही निर्माण की शिल्पकार बन गयी है. ऐसे काव्य के सुंदर सुमन इस गुलिस्तान में खिलते रहें, साथ साथ तन्मय करती कल कल बहती सुधी पाटकों को भाव विभोर करती रहे इसी अभिनन्दन एवं शुभकामनाओं के साथ ..

देवी नागरानी, ९-दी कॉर्नर व्यू सोसाइटी, १५/३३ रोड, बंदर, मुंबई ५०. फ़ोन ९८६७८५५७५१/

dnangrani@gmail.com

काव्य-संग्रह : एल खुशबू टहलती हुई, लेखिका: मोनिका हठीला, पन्ने; १०४, मूल्य: रु.२५०. प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, प़ी. सी-.लैब,सम्राट काम्प्लेक्स, सीहौर ४६६००१.

सुशीला जी को राष्ट्रप्रेम विरासत में मिला है।

chalo shanti ki or new3 सम्भवत: एक वर्ष पूर्व श्री मथुरा प्रसाद महाविद्यालय कोंच में आयोजित सेमिनार की अध्यक्षता के सिलसिले में कोंच जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वहीं से डॉ0 गीतान्जलि के आवास पर गया। डॉ0 गीतान्जलि ने अपनी माँ से मेरा परिचय कराया। परिचय के दौरान मैंने कर्तव्यपरायणता कीर् मूत्तिा से साक्षात्कार किया। 38 वर्ष की अवस्था में विधि की मार से आहत वैधव्य को स्वीकार करके, अपने ग्रहस्थ धर्म का निर्वाह करते हुए अपने बच्चों के लालन पालन में अपने को होम देने वाली कर्मठ विदुशी श्रीमती सुशीला अग्रवाल के हृदय के अन्दर के कवि को देखकर मैं विस्मृत रह गया। उनके अन्तस्थल से काव्य की जो निर्झरणी बही तो 'चलो शान्ति की ओर' का निर्माण हो गया।
शुचिता से परिपूर्ण 'श्रुतिजी' ने प्रथम पूज्य श्रीगणेश जी की वन्दना की और अपने जीवन में 'शुभ लाभ' भर लिया। भ्रम के जाल में न फंसते हुए माँ सरस्वती से अपनी 'बुध्दि की प्रखरता' का वरदान प्राप्त कर लेने वाली आदरणीया सुशीला भाभी के इस काव्य संग्रह में भिन्न भिन्न कविताओं का अनुपम संकलन है। कहीं 'ध्येय की आराधना में ज्ञेय ही बस साध्य बना' तो कहीं जीवन की यर्थाथता से यूं परिचय हुआ -
'नश्वर है सबका ही जीवन
नहीं अमरता है तुमको'
सुशीला भाभी का यह काव्य संग्रह जीवन की इन्द्रधनुषी छटा को अपने अंक में समेटे हैं। पारिवारिक जीवन में पति विछोह की टीस असहनीय होती है, परन्तु उस पर बस भी किसी का नहीं चलता-प्राण कैसे देह से क्यूं गये निकल
ठगी सी देखती रह गई निकल
थाम न पाई थी मैं इन बाहु से
थाम कर जिनको ये लाये गेह पर'
जीवन की इस आपाधापी में दुख सुख को सीधी सच्ची बात के रुप में कहते हुये भविष्य के कर्तव्य का बोध दृष्टव्य है -
मन का ही गाना है, मन का ही रोना।
फिर भी अरमान ने, मन में संजोना॥
कवियत्री के मन में समाज के दुर्बल वर्ग की सीत्कार के शब्द जो नेत्रों से बहे, वे सिन्धु हो गये -
दीन दुखियों के दृगों से, अश्रु कुंठा के बहे हैं
स्वाद जिनका नुनखरा, वह सिन्धु गहरा बन गया है।
भाभी जी को राष्ट्रप्रेम विरासत में मिला है। तभी तो इस संग्रह में माँ भारती के पुत्रों की हार्दिक अभिलाषा व्यक्त करते हुये कहा गया है -
फूल गेंदा, गुलाब, चमेली के हम,
सिक्ख, हिन्दू, मुसलमान हैं फारसी
तेरी माला में सब मिलकर गुथते रहें
हार बन कर हिय में संवरते रहें
तेरे चरणों में तन मन निछावर रहे।
अनेकता में एकता की मिसाल से ओतप्रोत इस भारत देश के विकास के लिये शिक्षा एक ऐसी पायदान है जिसे दर किनार नहीं किया जा सकता। तभी तो भारत मां के पुत्रों का आवाह्न करते हुये कवियत्री का कथन है -
डगर डगर और गांव गांव में, ज्ञान के दीप जलायें
गूंजे फिर जय विश्व शान्ति का, सुने कहीं न क्रन्दन
सच्चे अर्थों में तब होगा, भारत मां का वन्दन।
सच्चे धर्मों में तब होगा, भारत मां का वन्दन।
इसी के साथ सुशीला भाभी ने वर्तमान समाज की वास्तविकता को भी उजागर करते हुये लिखा है -
यहां न्याय बिकता और ईमान बिकता
यहां धर्म बिकता और इन्सान बिकता
स्वार्थों के हाथों में समता सिरानी
सुनाते हैं हम अपनी दर्दे कहानी।
दर्दे कहानी के कारणों के निराकरण की राह भी कवियत्री सुझाते हुये कहती है -
फल की आशा न हो मन में, ऐसा कर्म करो प्यारे।
निष्काम कर्म करके भी बन सकते, जग के उजियारे॥
मन के भावों की सीधी सच्ची भाषा में अभिव्यक्ति ही कवियत्री के गीतों की विशेषता है। यह गीत संग्रह अतृप्त आकांक्षाओं की तृप्त परिणति है।
आदरणीया सुशीला भाभी जी की यह सृजन साधना अविरल, पापनाशिनी गंगा बनकर, बहती रहे, यही परमपिता परमेश्वर से विनती है।
मेरी कोटिश: मंगलकामनायें।
                    -डॉ0 हरीमोहन पुरवार
संयोजक
भारतीय सांस्कृतिक निधि उरई अध्याय, उरई
दिनांक- 4 फरवरी 2010

रजनी नय्यर की कविताएँ इंटरनेट की उसी पहली पीढ़ी की कविताएँ हैं : डॉ. कुमार विश्‍वास

swapn marte nahin (2) इन दिनों इंटरनेट की दुनिया पर जैसे हिंदी की विस्फोट सा हो गया है । हिंदी में काफी कुछ रचा जा रहा है वहाँ पर । हालाँकि अभी ये तय होना बाकी है कि जो कुछ भी इंटरनेट पर रचा जा रहा है उस सब को साहित्य का दर्जा दिया जाये अथवा नहीं । लेकिन ये तो तय है कि इंटरनेट पर हिंदी कविता के माध्यम से एक पूरी नई पीढ़ी अपने विचार लेकर आ गई है । उन्हीं में रजनी नय्यर भी हैं । इनकी कविताओं में संवेदना है और भाव हैं, किन्तु अभी शिल्प तथा व्याकरण को लेकर बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है । लेकिन मुझे लगता है कि कवि होने के लिये सबसे पहली आवश्यकता है कविता के साथ जुडाव होना, यदि आपका कविता के साथ जुड़ाव है तो कविता आपके बाकी के रास्ते खुद ही खोल देगी ।
रजनी नय्यर भी उस इंटरनेट साहित्य की कवयित्री हैं जो ब्लाग, आरकुट, फेसबुक और ट्वीटर जैसे कई सारे माध्यमों से फैलता जा रहा है । अब चूंकि उनकी कविताएँ पुस्तक का रूप लेकर पाठकों के हाथ में आ रही हैं इसलिये अब उनको ज्‍यादा सजग रहने की आवश्यकता है । चूँकि पुस्तक के रूप में आने का मतलब है एक बड़े पाठक वर्ग के हाथ में पहुँचना, पाठक वर्ग जो समीक्षक भी है और आलोचक भी । मैंने प्रारंभ से ही इस इंटरनेट के माध्यम से आ रहे साहित्य का समर्थन तथा उत्साहवर्ध्दन किया है । क्योंकि मुझे लगता है कि साहित्य के इस संकट काल में यह माध्यम बहुत उपयोगी हो सकता है । बात तो केवल अभिव्यक्ति की है, तो फिर इंटरनेट क्यों नहीं ? ठीक है आज इंटरनेट पर जो कवि तथा कविता है वो अपने प्रारंभिक दौर में हैं, लेकिन प्रारंभिक दौर में होना एक स्थिति है जो बीत जाती है । कल जब इंटरनेट पर हिंदी अपने प्रारंभिक दौर से गुज़र चुकी होगी तो हम देखेंगे कि इसी माध्यम से निकल कर कई सारे साहित्यकार हमारे पास होंगे । उस कल को यदि आते हुए देखना है तो हमें इसके आज का उत्साहवर्ध्दन करना ही होगा । यदि नहीं किया तो फिर हमें साहित्य को लेकर फिजूल की बातें भी नहीं करनी चाहिये ।
रजनी नय्यर की कविताएँ इंटरनेट की उसी पहली पीढ़ी की कविताएँ हैं जो अपने प्रारंभिक दौर में है । शायद कोई और रचनाकार इन कविताओं की भूमिका लिखने से पहले एक बार सोचे, लेकिन मुझे लगता है कि ज़रूरत तो इन कवियों को आज है । पौधे को पानी सींचने की ज़रूरत तब होती है जब वो अपनी प्रारंभिक अवस्था में होता है, बाद में तो विकास के सोपान पार करता हुआ वो स्वयं इतना समर्थ हो जाता है कि अपना पोषण स्वयं कर सके । इंटरनेट और कम्प्यूटर के माध्यम से सामने आई इस नई पीढी क़े पास विचार हैं, भाव हैं और अपना कहने का तरीका भी है । कई कई बार तो नये तेवर भी दिखाई देते हैं । ऐसे में ये पीढ़ी इतनी आसानी से अपने आप को ंखारिज होने देगी ऐसा नहीं लगता । हाँ एक बात जो मैंने पहले भी की वही दोहराना चाहूँगा, कि इन सारे रचनाकारों को अब व्याकरण के संतुलन की ओर भी ध्यान देना होगा ।  लेकिन जैसा कि लगता है ये नये रचनाकार भी उस चुनौती के लिये अपने को तैयार किये बैठे हैं । जैसा कि रजनी नय्यर की ही इस कविता में दिखाई देता है
चुनौती के  सागर में  डूबना  तभी सफल  और  आनंददायक  लगता है  जब  चुनौती का सागर  गहरा हो
रजनी नय्यर की कविताएँ भी अपनी चुनौती के साथ स्वयं ही जूझ लेंगीं । मैं शिवना प्रकाशन को भी अपनी ओर से साधुवाद देता हूँ जो वे इंटरनेट की इस नई पीढी क़ो पुस्तकों के माध्यम से साहित्य की असली दुनिया में लाने का काम कर रहे हैं । सीहोर जैसे सुदूर कस्बे से उच्च गुणवत्ता की ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करना सचमुच ही एक ऐसा कार्य है जिसके लिये शिवना प्रकाशन बधाई का पात्र है । एक बार पुन: इस काव्य संग्रह ''स्वप्‍न मरते नहीं'' के लिये मेरी ओर से शुभकामनाएँ ।
dr kumar vishwas

-डॉ. कुमार विश्वास

संगीता स्‍वरूप गीत जी की कविताएँ अपने समय का सही प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हैं - रमेश हठीला ।

ujla aasman (1)

उजला आसमां, काव्‍य संग्रह,  लेखिका संगीता स्‍वरूप गीत

संगीता जी की कविताओं के माध्यम से उनकी काव्य यात्रा को जानने का अवसर मिला । संगीता जी की ये कविताएँ उस नये युग की कविताएँ हैं जहाँ पर कविताओं को प्रकाशन के लिये किसी सम्पादक की कृपादृष्टि पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है । ये इंटरनेट का युग है जहाँ सब कुछ लेखक के हाथ में आ गया है । हालाँकि इस सब के दुष्परिणाम भी सामने आये हैं तथा कविता के नाम पर इंटरनेट पर हर कोई कुछ भी लिख कर परोस रहा है । और इसी कारण इस लेखन को गंभीर साहित्य की श्रेणी में नहीं रखा जा रहा है । लेकिन ऐसे समय में जब इंटरनेट की कविताओं को बहुत महत्व नहीं दिया जा रहा है, उस समय में संगीता जी की कविताएँ साहित्य के प्रतिमानों पर खरी उतरती हुई मानो इस बात का मुखर विरोध कर रही हैं कि इंटरनेट पर गंभीर साहित्य नहीं लिखा जा रहा है । ये सारी कविताएँ किसी भी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित होने वाली कविताओं से किसी भी रूप में कम नहीं हैं । इसके अलावा जो बात संगीता जी की कविताओं में प्रमुख रूप से दिखाई देती है वो है सरोकारों के प्रति सजगता । वे साहित्य के सरोकारों को बिल्कुल भी भूली नहीं हैं, ये बात उनकी कविताओं में पता चलता है । जैसे भ्रूण हत्या पर संगीता जी की कविता की ये पंक्तियाँ मन को एकबारगी झकझोर जाती हैं-
इस बार भी परीक्षण में  कन्या-भ्रूण ही आ गया है  इसीलिए बाबा ने मेरी मौत पर  हस्ताक्षर कर दिया है।
एक और कविता इसी प्रकार की है जो गहरे प्रश् छोड़ती हुई एक सन्नाटे को भेदती हुई समाप्त होती है । पूरी कविता मानो उस पीड़ा के राग पर रची गई है जो पीड़ा आज पृथ्वी की उस आधी आबादी की पीड़ा है जिसे नारी कहते हैं । जब ये कविता समाप्त होती है तो आधी आबादी के लिये शोक गीत की गूँज मन में छोड़ जाती है-
एक नवजात कन्या शिशु  जो कचरे के डिब्बे में  निर्वस्त्र सर्दी से ठिठुर दम तोड़ चुकी थी ।
संगीता जी एक और कविता बहुत गहरे अध्ययन की माँग करती है और ये कविता है गांधारी  इस कविता में कवयित्री अपने सर्वश्रेष्ठ को शब्दों में फूँकने में सफल रहीं हैं । पूरी कविता गांधारी को कटघरे में खड़ा करने  का एक ऐसा प्रयास है जो कि पूरी तरह से सफल रहा है । कवयित्री ने गांधारी के माध्यम से जो प्रश् उठाये हैं वे आज भी सामयिक हैं । गांधारी के चरित्र को आधार बना कर संगीता जी ने कई बहुत अच्छे प्रयोग कविता में किये हैं । और ये कविता मानो एक दस्तावेज की तरह आरोप पत्र दाखिल करती हुई गुज़रती है-
जब लड़खड़ाते धृतराष्ट्र तो  तुम उनका संबल बनतीं  पर तुमने तो हो कर विमुख अपने कर्तव्यों को त्याग दिया ।
संगीता जी की कविताओं में नारी के स्वाभीमान के प्रति एक प्रकार की अतिरिक्त चेतना भरी हुई साफ दिखाई देती है । ये कविताएँ नारी का अधिकार किसी से माँग नहीं रही हैं बल्कि नारी को ही जगा कर कह रहीं हैं-
और फिर एक ऐसे समाज की  रचना होगी  जिसमें नर और नारी की अलग-अलग नहीं  बल्कि सम्मिलित संरचना  निखर कर आएगी ।
संगीता जी की कविताओं में कुछ ऐसा विशिष्ट है जो उनकी कविताओं को आम कविताओं से अलग करता है । ये कविताएँ अपने समय का सही प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हैं । उनके  काव्य संग्रह का शीर्षक  उजला आसमाँ  वास्तव में स्त्री के भविष्य  की ओर इंगित करता है । और ये कविताएँ उस आकाश को पाने की कोशिश में समूची नारी जाति की ओर से एक कदम की तरह है । ये कदम सफल हो, मेरी शुभकामनाएँ ।
ramesh hathila ji1                      

-रमेश हठीला

स्‍वागत कीजिये शिवना प्रकाशन की तीन नई पुस्‍तकों का ।

dekh loon to chaloon2

ujla aasman (2)

swapn marte nahin

शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित श्री समीर लाल की उपन्‍यासिका देख लूं तो चलूं का विमोचन वरिष्‍ठ साहित्‍यकार श्री ज्ञानरंजन जी ने किया ।

dekh_lun samatdiwan

           उस दिन किसी ने कहा  देश विदेश में ख्याति अर्जित करेगी किताब,तो किसी ने माना जिगरा है समीर में ज़मीन से जुड़े रहने का, तो कोई कह रहा था वाह! अपनी तरह का अनोखा प्रवाह है. किसी को किताब बनाम उपन्यासिका- ’ट्रेवलाग’ लगी तो किसी को रपट का औपन्यासिक स्वरूप किंतु एक बात सभी ने स्वीकारी है कि: ’समीरलाल एक ज़िगरे वाला यानि करेज़ियस व्यक्ति तो है ही लेखक भी उतना ही ज़िगरा वाला है…!’
       जी हां, यही तो हुआ समीरलाल की कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह के दौरान  दिनांक 18/01/2011 के दिन कार्यक्रम के औपचारिक शुभारम्भ में. अथितियों का स्वागत पुष्पमालाओं से किया गया. फ़िर शुरु हुआ क्रमश: अभिव्यक्तियों का सिलसिला. सबसे पहले आहूत किये गये समीर जी के पिता श्रीयुत पी०के०लाल जिन्हौंने बता दिया कि-’हां पूत के पांव पालने में नज़र आ गये थे जब बालपन में समीर ने इंजिनियर्स पर एक तंज लिखा था.

श्रीमति साधना लाल एवं श्री समीर लाल ने सभी के प्रति कृतज्ञता अंत:करण से व्यक्त की.

gyanji

समीर स्वयं कम ही बोले मुझे लग रहा था कि समीरलाल काफ़ी कुछ कहेंगे – किताब पर, अपने ब्लॉग ’उड़नतश्तरी’ पर, किंतु समीर जी बस सबके प्रति आभारी ही नज़र आये. संचालक के तौर पर मेरी सोच पहली बार गफ़लत में थी. समीर भावुक थे उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति में कहा –“किसी रचना कार के लिये उसकी कृति का विमोचन रोमांचित कर देने वाला अवसर होता है जब  श्री ज्ञानरंजन जी, डा० हरिशंकर दुबे सहित विद्वतजन उपस्थित हों तब वे क्या कहें और कैसे कहें और कितना कहें? ”
v1

श्रीयुत श्रवण कुमार दीपावरे, जो समीर लाल को बाल्यकाल से देखते आ रहे हैं, का कथन कोट करना ज़रूरी है यहां :-”मुझे नहीं मालूम ब्लाग क्या है, समीर लाल किस ऊंचाई पर है. मुझे तो वो पिंटू याद है जो आज़ भी पिंटू ही है पिंटू ही रहेगा.भोला भाला सृजनशील हमारा पिंटू.यानी सभी जैसे  समीर जी के बचपन के मित्र , राकेश कथूरिया लाल परिवार के समधी दम्पत्ति श्रीमति-श्री दीवान सहित सभी उपस्थित जन  बेहद आत्मिक रूप से आयोजन से जुड़ गये थे

कवि-लेखक एवम ब्लागर डा० विजय तिवारी ’किसलय’के शब्दों में 
                  मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में अपने घर से 110 किलोमीटर दूर कनाडा की ओन्टारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से पाठक पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही है.
युवा विचारक एवम सृजन धर्मी श्री पंकज स्वामी ’गुलुश’(पब्लिक-रिलेशन-आफ़िसर म०प्र० पूर्व-क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी)
ब्लाग और किताबों में फ़र्क है. किताबें कहीं न कहीं पढ़्ने में सहज एवम संदर्भ देने वाली होती हैं जबकि ब्लाग को पढ़ना सहज नहीं है. ये तथ्य अलग है कि ब्लाग दूर देशों  तक आसानी से पहुंच जाता है. अपने साथ समीरलाल के सम्बंधों का ज़िक्र करते हुये गुलुश ने उन्हैं - जडों से जुड़े रहने की क्षमता वाला व्यक्ति निरूपित किया.

v2


इस अवसर पर बवाल ने एक गज़ल के ज़रिये अपना स्नेह समीर जी लिये व्यक्त किया
समीक्षक इंजिनियर ब्लागर :- श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव
         एक ऐसा संस्मरण जो कहीं कहीं ट्रेवेलाग है, कहीं डायरी के पृष्ठ, कहीं कविता और कहीं उसमें कहानी के तत्व है। कहीं वह एक शिक्षाप्रद लेख है, दरअसल समीर लाल की नई कृति ‘‘देख लॅू तो चलूं‘‘ उपन्यासिका टाइप का संस्मरण है। समीर लाल हिन्दी ब्लाग जगत के पुराने,  सुपरिचित और लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है। उनका स्वंय का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है। वे लिखते है ‘‘ सुविधायें बहुत तेजी से आदत खराब करती है‘‘ यह एक शाश्वत तथ्य है। इन्हीं सुविधाओं की गुलामी के चलते चाह कर भी अनेक प्रवासी भारतीय स्वदेश वापस ही नहीं लौट पाते ।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी के मुख्य अतिथि की सम्मति थी
                   छोटे उपन्यासों की एक जबरदस्त दुनिया है. द ओल्ड मैन एण्ड द सी, कैचर ऑन द राईड, सेटिंग सन, नो लांगर ह्यूमन, त्यागपत्र, निर्मला, सूरज का सातवां घोड़ा आदि. एक वृहत सूची भी संसार के छोटे उपन्यासों की बन सकती है. छोटे उपन्यासों की शुरुआत भी बड़ी दिलचस्प है. स्माल इज़ ब्यूटीफुल एक ऐसा मुहावरा या जुमला है. विश्व की छोटी वैज्ञानिक कारीगरियों और सृजन के छोटे आकारों को वाणी देता हुआ लेकिन समाज, सौंदर्य और इतिहास के विशाल दौरों में एक कारण यह भी था कि वार एण्ड पीस, यूलिसिस और बाकज़ाक के बड़े उपन्यासों ने जो धूम मचाई उसके आगे बड़े आकार के अनेक उपन्यास सर पटक पटक मरते रहे. ये स्थितियाँ छोटे उपन्यासों की उपज के लिए बहुत सहज थीं. हिन्दी में गोदान, कब तक पुकारुँ, शेखर एक जीवनी, बूँद और समुद्र, मुझे चाँद चाहिये के बाद पिछले एक दशक में ५० से अधिक असफल बड़े उपन्यास लिखे गये. और अब छोटे उपन्यासों की रचने की पृष्टभूमि बन गई है. छोटा हो या बड़ा, सच यह है कि वर्तमान दुनिया में उपन्यासों का वैभव लगातार बढ़ रहा है. यह एक अनिवार्य और जबरदस्त विधा बन गई है.पहले इसे महाकाव्य कहा जाता था. अब उपन्यास जातीय जीवन का एक गंभीर आख्यान बन चुका है. समीर लाल ने इसी उपन्यास का प्रथम स्पर्श किया है, उनकी यात्रा को देखना दिलचस्प होगा.
                     ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते. मुझे लगता है कि ब्लॉग एक नया अखबार है जो अखबारों की पतनशील चुप्पी, उसकी विचारहीनता, उसकी स्थानीयता, सनसनी और बाजारु तालमेल के खिलाफ हमारी क्षतिपूर्ति करता है, या कर सकता है. ब्लॉग इसके अलावा तेज है, तत्पर है, नूतन है, सूचनापरक है, निजी तरफदारियों का परिचय देता है पर वह भी कंज्यूम होता है. उसमें लिपि का अंत है, उसको स्पर्श नहीं किया जा सकता. किताबों में एक भार है-मेरा च्वायस एक किताब है, इसलिए मैंने देख लूँ तो चलूँ को उम्मीदों से उठा लिया है. किताब में अमूर्तता नहीं है, उसका कागज बोलता है, फड़फड़ाता है, उसमें चित्रकार का आमुख है, उसमें मशीन है, स्याही है, लेखक का ऐसा श्रम है जो यांत्रिक नहीं है.
                      देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है.
        समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म है,  बलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है.
             निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं. स्वयं उपन्यास में समीर लाल ने लिखा है कि बहुत जिगरा लगता है जड़ों से जुड़ने में. समीर लाल सत्य के साथ हैं, उन्होंने प्रवास में रहते हुए भी इस सत्य की खोज की है
               मेरे लिए अभी बहुत संक्षेप में, आग्रह यह है समीर लाल का स्वागत होना चाहिए. उन्होंने मुख्य बिंदु पकड़ लिया है. उनके नैरेशन में एक बेचैनी है जो कला की जरुरी शर्त है.
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.
समीर लाल को दोबारा मैं कोट करना चाहूँगा कि ’बड़ा जिगरा चाहिए जड़ से जुड़े रहने में’.

इसी क्रम में अध्यक्षीय उदबोधन में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे ने कहा  

ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका  ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.
         ज्वेल्स हैनरी का एक कथन कोट करते हुए डा० दुबे ने कहा ’यदि समझना चाहते हो कि परिवर्तन क्या है, सामाजिक परिवर्तन क्या है, और अपना आत्मगत परिवर्तन क्या है, तो अपने समय और समाज के बारे में एक किताब लिखो’ ऐसा ज्वेल्स हैनरी ने कहा. ये पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि कितनी सच्चाई के साथ और कितनी जीवंतता के साथ और कितनी आत्मीयता के साथ समीर लाल ने अपने समय को, अपने समाज को, अपनी जड़ों को, जिगरा के साथ देखने का साहस संजोया है.
ये कृति कनाडा से भारत को देख रही है या भारत की दृष्टि से कनाडा को देख रही है चाहे कुछ भी हो बहुत बेबाकी से और बहुत ईमानदारी के साथ जिसमें कल्पना भी है, जिसमें विचार भी है, और जैसा अभी संकेत किया माननीय ज्ञानरंजन जी ने कि ये केवल एक उपन्यासिका भर नहीं है, कभी कभी लेखक जो सोच कर लिखता है जैसा कि भाई गुलुश जी ने कहा था कि 5 घंटे साढ़े 5 घंटे में लेकिन ये साढ़े 5 घंटे नहीं हैं साढ़े 5 घंटे में जो मंथन हुआ है उसमें पूरा का पूरा उनके बाल्य काल से लेकर अब तक का और बल्कि कहें आगे वाले समय में भी, आने वाले समय को वर्तमान में अवस्थित होकर देखने की चेष्टा की है कि आने वाले समय में समाज का क्या रुप बन सकता है उसकी ओर भी उन्होंने संकेत दिया है तो वो समय की सीमा का अतिक्रमण भी है, और उसी तरीके से विधागत संक्रमण भी है, जिसमें आप देखते हैं कि वह संस्मरणीय है, वह उपन्यास भी है, वह कहीं यात्रा वृतांत भी है और कहीं रिपोर्ताज जैसा भी है कि रिपोर्टिंग वो कर रहे हैं एक एक घटना की तो ये सारी चीजें बिल्कुल वो दिखाई देती हैं और आरंभ में ही जब वो कहते हैं कि (प्रमोद तिवारी जी की पंक्तियाँ)
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
तो जब वो बात कहते हैं तो उनके पगों के द्वारा वो नाप लेते हैं जैसे कभी बामन ने तीन डग में नापा था ऐसा कभी लगता है कि एक डग इनका भारत में है, और एक चरण उनका कनाडा में है और तीसरा चरण जो विचार का चरण है उस तीसरे चरण में .......इन तीन चरणों से वो नाप लेते हैं निश्चित रुप से जब वो बूढ़े बरगद की याद करते हैं जब वो मिट्टी के घरोंदों की याद करते हैं, जब वो जलते हुए चूल्हे की याद करते हैं और उन चूल्हों पर बनने वाले सौंधे महक से भरे हुए पराठों की याद करते हैं
क्यूँकि मूलतः वो कवि भी हैं तो जब परदेश पर वो लिखते हैं दो लाईन पढ़ना चाहता हूँ
परदेस, देखता हूँ तुम्हारी हालत,
पढ़ता हूँ कागज पर,
उड़ेली हुई तुम्हारी वेदना,
जड़ से दूर जाने की...
तो जड़ से दूर हो जाने की जो वेदना है परदेश में जाकर बराबर वो देखते हैं मार्मिकता के साथ, जैसा अभी सम्मानीय ज्ञान जी ने कहा कि इसके अंदर केवल व्यंग्य भर नहीं है जो अन्तर्वेदना है और जो त्रासदी की बात उन्होंने की थी वो त्रासदी कम से कम आगे जाकर के वो प्रकट होना चाहिये- त्रासदी की बात वो बहुत बड़ी बात है.
निश्चित रुप से मैं एक बात उल्लेख करना चाहूँगा जो कृतिकार ने अंत में कही है कि मैं लिखता तो हूँ मगर मेरी कमजोरी है कि मैं पूर्ण विराम लगाना भूल जाता हूँ. मुझे लगता है कि यह उनकी सहजोरी है कमजोरी नहीं है कि पूर्ण विराम लगाना भूल जाते हैं यह कृति में पूर्ण विराम नहीं है. आप पूर्ण विराम लगाना ऐसे ही भूलते रहिये ताकि कम से कम वो वाक्य पूरा नहीं होगा क्य़ूँकि जो कथ्य है जो भाव है जो आप कहना चाहते हैं वो आगे भी गतिमान रहेगा,

इसके बाद स्वल्पाहार के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ.

आलेख एवम प्रस्तुति: गिरीश बिल्लोरे ’मुकुल’

गीतों के बंजारे कवि रमेश हठीला का हैदराबाद में निधन

आज साजन का संदेसा आ गया है

ये निमंत्रण मुझको भी तो भा गया है

आओ सब मिलकर बधावें गीत गाओ

और दुल्हन की तरह डोली सजाओ

                                     - श्री रमेश हठीला

banjare geetramesh hathila ji1

सीहोर के यशस्वी कवि तथा साहित्यकार रमेश हठीला का लम्बी बीमारी के बाद हैदराबाद के एक निजी अस्पताल में निधन हो गया । सीहोर के साहित्य जगत ने उनके निधन के साथ ही एक महत्वपूर्ण कवि को खो दिया । बंजारे गीत पुस्तक के माध्यम से राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य पर अपनी पहचान छोड़ने वाले श्री हठीला इकसठ वर्ष के थे ।
देश भर के कवि सम्मेलनों में अपने ओज के गीतों से अपनी अलग पहचान स्थापित करने वाले गीतकार तथा सीहोर की साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु रहने वाले गीतकार श्री रमेश हठीला का हैदराबाद में कल शाम दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया । वे पिछले तीन माह से वहां इलाज हेतु गये हुए थे । काल के भाल पर गीत मैंने लिखा / मौत आई अगर उसका भी मन रखा / हार मानी नहीं काल हारा स्वयं / एक पल को मुझे क्यों हुआ ये भरम / जिंदगी के लिये गीत मैं गाऊँगा / मैं हँ बंजारा बादल, भटकता हुआ / प्यासी धरती दिखी तो बरस जाऊँगा। जैसे गीतों से जाने वाले गीतकार रमेश हठीला सीहोर की सभी साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए थे । शिवना साहित्यिक संस्था के वे संस्थापक सदस्य थे, सीहोर में पिछले तीस बरसों से लगातार आयोजित हो रहे जनार्दन शर्मा पुण्य स्मरण संध्या तथा सम्मान समारोह से वे सक्रियता से जुड़े हुए थे  । तीन वर्ष प्रकाशित होकर आया उनका काव्य संग्रह बंजारे गीत राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित रहा था । एक और जहां वे अपने ओज के स्वारथ के अंधों ने कैसा हश्र किया बलिदान का / लहूलुहान नजर आता है नक्शा हिन्दुस्तान का जैसे गीतों के लिये जाने जाते थे वहीं कोमल श्रंगार के सांस तुम, मधु आस तुम, श्रंगार का आधार तुम / तुम ही उद्गम, अंत तुम ही, कूल तुम मझधार तुम जैस गीतों को अपनी सुमधुर आवाज में प्रस्तुत करने में भी उनका कोई सानी नहीं था । ढलते देखा है सूरज को, चंदा देखा गलते / काल चक्र की चपल चिता में देखा सबको जलते/ अपना जीवन पूरा करके टूट गया हर तारा/ नियती के इस कड़वे सच क्यों हम आंख चुराएँ, जैसे जीवन दर्शन के गीत भी उनकी सशक्त लेखनी से जन्म लेते थे । श्री हठीला अपनी कुंडलियों के लिये भी खासे लोकप्रिय थे जो वे लगभग हर समाचार पत्र के लिये सम सामयिक घटनाओं पर आठ पंक्तियों वाली चुटीली कुंडलियां लिखा करते थे जो बहुत पसंद की जाती थीं, इस प्रकार की कुंडलियां उन्होंने लगभग दो हजार से भी अधिक लिखीं थीं । पिछले कुछ दिनों से साहित्यिक पुस्तकों  की समीक्षा लिखने से भी जुड़ गये थे, उनकी समीक्षाएं देश की सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रहीं थीं । वाशिंगटन हिंदी समिति तथा शिवना प्रकाशन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित भारतीय मूल के पांच हिंदी लेखकों की महत्वपूर्ण पुस्तक धूप गंध चांदनी की भूमिका भी उन्होंने लिखी थी जो अंतर्राष्ट्रीय हिंदी जगत में काफी सराही गई थी । निधन से कुछ ही दिन पूर्व उन्होंने उजला आसमान नामक पुस्तक की भूमिका अस्पताल में ही लिखी थी ।  वे पत्रकारिता से भी जुड़े हुए थे तथा ऐतिहासिक तथा धार्मिक समाचार नियमित रूप से लिखा करते थे जिला पत्रकार संघ के संस्थापक सदस्यों में भी वे थे  । शहर के इतिहास की उनको अच्छी खासी जानकारी थी । होली के अवसर पर उनके द्वारा निकाले गये विशेष समाचार पत्र का पूरे शहर को इंतजार रहता था । उनकी चुटीली तथा गुदगुदाने वाली काव्यमय उपाधियां कई दिनों तक शहर में चर्चा का केन्द्रबिन्दु रहती थीं ।  होली के विशेष अंक में हास्य समाचार तथा अन्य सामग्रियां भी वे स्वयं जुटाते थे । श्री हठीला को प्रतिष्ठित जनार्दन सम्मान सहित कई सम्मान तथा पुरस्कार प्राप्त हो चुके थे । हिंदी कवि सम्मेलन के मंचों की प्रतिष्ठित कवयित्री मोनिका हठीला के वे पिता थे ।  उनके निधन से सीहोर के साहित्य आकाश का एक चमकीला सितारा टूट गया है । देर रात उनके निधन का समाचार मिलते ही शहर के साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा पत्रकारिता जगत में शोक की लहर दौड़ गई । श्री हठीला का अंतिम संस्कार हैदराबाद में ही किया जायेगा । तीन दिन बाद उनका अस्थि कलश हैदराबाद से सीहोर लाया जायेगा । प्यार से तेरा अभी परिचय नहीं है  ये समर्पण है कोई विनिमय नहीं है / मात्र मोहरे हैं सभी शतरंज के हम / मौत कब हो जाये ये निश्चय नहीं है / जो मिला उनमुक्त हाथों से लुटाओ / अर्थ जीवन का कभी संचय नहीं है, जैसी पंक्तियों का गीतकार सब कुछ उन्मुक्त हाथों से लुटा कर बिना कुछ संचय किये सीहोर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर दकन के हैदराबाद में गहरी नींद सो गया ।