मेरा मानना है कि कविताओं की पुस्तकें तीन तरह के घर की तरह होती हैं, एक जिनमें प्रवेश द्वार होता है जो निष्कासन द्वार भी सबित हो जाता है, अर्थात जाइए इधर उधर देखिए वहीं खडे ख़ड़े, फिर निकल आइए । दूसरी तरह की पुस्तक में प्रवेश द्वारा से घुस जाइए कुछ आगे बढ़िए तो पता चलता है कि हर जगह बड़ी बडी ख़िड़कियाँ हैं और आप पछता कर लौटने के बजाए किसी खिड़की से बाहर कूद आते हैं। मगर तीसरी पुस्तक ऐसी होतीहै जिसमें प्रदेश करने के बाद भले ही एक आध खिड़कियाँ भी दिखाई दें, मगर आगे बढ़ने का आकर्षण आप को आगे बढाता रहता है, अन्तत: आप उस घर के अंत तक पहँच कर बाहर निकलने के द्वार से ही अपने अन्दर बहुत सी प्रशंसाएँ, अनुभूतियाँ लेकर निकलते हैं। ''धूप से रूठी चाँदनी'' ऐसा ही घर है जो आप को प्रारंभ से अंत तक एक आकर्षण में बाँधे रखने में सक्षम है इसके लिए मैं डॉ. सुधा ओम ढींगरा को मुबारकबाद देता हूँ । डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कविताओं को जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। एक के बाद एक ... उनमें सम्मोहन का इतना चुम्बकत्व था कि इन कविताओं के पाश में बँध सा गया ।
आम तौर से जब कोई नारी सृजनात्मक कार्य करती है तो वह रंग, खुश्बु, मिलन, विरह, आंनद, बाल बच्चों, दूसरे पारिवारिक बँधन, कुछ कर दिखाने की उत्कंठा, जिससे अबला की छवि धूमिल हो सके, पुरुष प्रधान समाज के प्रति ग़म और गुस्से के इर्द गिर्द घूमती रहती है । डॉ. सुधा ओम ढींगरा की कई रचनाएँ इन ही सच्चाइयों या कल्पनाओं से ग्रसित तो हैं मगर कुछ नया कहने का उनका जज्बा बहुत बलवान है, वह जो कहती हैं उस में इतना नयापन है कि लगता है कि इस दृष्टिकोण से कोई सोच नहीं सकता सिवाए डॉ. सुधा ओम ढींगरा के । सौभाग्यशाली हैं वह कि उन्हें अपने विचारों को सुँदर पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त करने की कला आती है । पूरी किताब में एक एहसास जो बेपनाह उभर कर सामने आता है वह है अपने छूटे देश के प्रति प्यार , अनुराग । इतिहास गवाह है कि भारतीय भाषाओं के रचनाकार भारत के बजाए कहीं भी जाएँ, वहाँ के दिलकश और मायावी वातावरण में कितना भी खो जाएँ मगर वह खुद को भारत से छिटका हुआ ही महसूस करते हैं। उर्दू के कितने ही साहित्यकार विभाजन के बाद पाकिस्तान हिजरत कर गए थे मगर वहाँ उन्हें गंगा जमुनी तहजीब नहीं मिली जिसके वह बचपन से आदी थे । कुछ भाग आए, कई वहाँ रहकर भी भारत की ही बात करते रहे और स्थानीय लोगों के भीषण प्रतिकार झेलते रहे । ढींगरा जी भी चूँकि वास्तविक रचनाकार हैं उनके अंदर एक कवयित्री का दिल धडक़ता है और उम्र के एक पड़ाव तक भारत में रहती रहीं इसलिए भारत का मोह उनके दिल से निकल नहीं पाया और निकलना चाहिए भी नहीं । यह अलग बात है कि भारत में रहने वाले ही भारत की आलोचनाओं का ढेर अपने दिल में रखे हुए हैं । और वह भी यहाँ के बिल्कुल विपरीत हालात में आकर कुछ दिनों बाद लौट जाने की स्वेक्षा से ग्रसित हो जाएँगी । मगर जो भी हो अपने भारत में कुछ तो है जो मन को उद्वेलित करता है और बिछड़ जाने की टीस से प्रभावित होकर कविताएँ लिखवाता है । ढींगरा जी की अक्सर कविताओं में भारत झाँकता मिलता है, कहीं कहीं तो पूरा भारत ही दृष्टिगोचर होता है । उनकी भावनाओं को मेरा सलाम कि यह देशभक्ति का जबा तमाम जबात का महाराजा है । अपने वतन की मिट्टी भी स्वर्ण माटी है, अपने वतन की हवा भी मुश्क अंदर की खुश्बू काझौंका है । अपना वतन अपना वतन है शायद इसी भावना ने उन्हें कवयित्री बनने पर विवश किया है, तभी वह अपने एहसास को कलमबध्द कर सकीं हैं । ढींगरा जी अमेरिका में हिन्दी साहित्य की पुरज़ोर आवाज़ हैं इस कृति से वहाँ हिंदी और भारत में वह कवयित्री के रूप में अवश्य स्थापित हो जाएँगी, क्योंकि अभी तक उनकी पहचान एक बहुत अच्छी कहानीकार की है ।
इनकी कविताओं में शब्दों के जब झरने बहते हैं तो छंद मुक्त कविता में भी एक संगीत और लय का आभास होने लगता है। रोजाना के हँसने हँसाने वाली रोने रूलाने वाली स्थितियों को जहाँ शब्दों का पहनावा दिया गया है वहीं ठोस फिलासफी पर आधारित रचनाएँ भी हैं जिनको कई पढने का चाहता जी चाहता है । लेखनी में इतनी सादगी है कि हम इसके जादू के प्रभाव में आ जाते हैं। विदेशों में रहने वालों का सृजन महज शगल है, महज शौक है, जिस में साहित्य नदारद रहता है, इस तरह के पूर्वाग्रहों के जालों को दिमाग से साफ करने की क्षमता है ढींगरा जी की रचनात्मकता में । पूरे भरोसे से कहा जा सकता है कि विदेशों में भी हिंदी की नई बस्तियों में साहित्य रचा जा रहा है। हिंदी आज इसीलिए एक विश्वव्यापी भाषा बन गई है ।
ढींगरा जी कई भाषाओं की ज्ञाता हैं ये कविताओं से स्पष्ट हो जाता है । वह केवल ज्ञाता ही नहीं बल्कि उन्हें इन पर अधिकर भी है । शब्दों का जानना ही साहित्यकार के लिए काफी नहीं होता, शब्द तो कोई की शब्दकोष से उठा सकता है, बडी बात है शब्दों के स्वभाव को समझना। सुधा जी शब्द के अर्थ और उनके स्वभाव से परिचित हैं इसका स्पष्ट उदारण है धूप से रूठी चाँदनी जहाँ उन्होंने शब्दों को उनके स्वभाव के अनुसार प्रयोग किया है कई जगह तो शब्दों को नया स्वभाव तक दे दिया है यह है सबूत उनके सच्चे रचनाकार होने का । आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि उनकी इस कृति को साहित्य प्रेमी उचित सम्मान देंगे ।
''धूप से रूठी चाँदनी'' वास्तक में नैसर्गिक भाषा में नैसर्गिक चिंतन का उद्गार है जो सच के अत्यंत समीप प्रतीत होता है । उन्होने हर पंक्ति में भाव के पूरे के पूरे संसार को समो दिया है । शाब्दिक चित्रण ऐसा कि हम स्वयं अपने सामने कविता को एक खाका, एक दृष्य पटल का रूप लेते देख लेते हैं और शनै: शनै: हम भी उस का एक हिस्सा बन जाते हैं। सुधा जी और धूप से रूठी चांदनी की लोकप्रियता अवश्य ही सरहदों को पार करती हुई जहाँ जहाँ हिंदी आबाद है वहाँ वहाँ अपना परचम लहराएगी ।
फिर भी भारत के प्रति उनकी आसक्ति को देखते हुए ऐसी रचनाओं की कमी लगती है जहाँ आज के बहुत समृध्द मगर कम सुखी भारत का जिक्र हो। आज यह देश तरह तरह की विडंबनाओं से ग्रसित है साम्प्रदायिकता, धार्मिक उन्माद, आतंकवाद, पारिवारिक बिखराव, संस्कृति की उडती धज्जियाँ । आज वह आकर देखें तो सम्भवत: जोश की तरह कह उठें ''अपने कभी के रंग महल में जो हम गए, ऑंसू टपक पडे दरो दीवार देख कर ।''
उनकी कविताओं में जाबजा स्त्री की पहचान एक इंसान के रूप में कराने का आग्रह और महज माँ, बहन, पत्नी की छवि में न बँधे रहने की छटपटाहट दिखती है -मैं ऐसा समाज निर्मित करूँगी / जहाँ औरत सिर्फ माँ, बेटी / बहन पत्नी, प्रेमिका ही नहीं / एक इंसान सिर्फ इंसान हो ।
दूसरी जगह कहती हैं -दुनिया ने जिसे सिर्फ औरत/ और तूने / महज बच्चों की माँ समझा / और तेरे समाज ने नारी को / वंश बढ़ाने का बस एक माध्यम ही समझा / पर उसे इंसान किसी ने नही समझा ।
उन्हें भरपूर आभास है कि आज के नेता क्या हैं, और वे अपनी रंगीन पार्टियों में जनता के प्रश्न किस तरह नजर अंदाज कर देते हैं -और हर बार / उसके प्रश्न / नेताओं के सामने परोसे / मुर्गे के नीचे दब जाते हैं / शराब के प्यालों / में बह जाते हैं ।
चिरपरिचित नारी संवेदनाओं का जब वह चित्रण करती हैं तो एक भिन्न परिवेश उजागर कर देती हैं - अश्रुओं की धार बहाती / ह्रदय व्यथित करती / इच्छाओं को तरंगित करती / स्मृतियाँ उनकी चली आई ।
हर साहित्यकार इस आभास के साथ जीता है कि जीवन एक रंग मंच है और भगवान के हाथों की हम सब कठपुतलियाँ मात्र हैं -कराए हैं नौ रस भी अभिनीत / जीवन के नाट्य मंच पर / हँसो या रोओ / विरोध करो या हो विनीत / नाचना तो होगा ही / धागे वो जो थामे हैं।
बचपन वह अवस्था होती है जब मन में तर्क वितर्क नहीं आते, प्रकृति की हर घटना उसके लिए सुखदायक होती है। मगर बडा होते ही चार किताबें पढ़ लेने के बाद वह तमाम सुखों से वंचित हो जाता है । जिस इंद्रधनुष को बचपन में रंगों से भगवान द्वारा की गई चित्रकारी समझता था अब वह उसके लिए फिजिक्स की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया के अलावा कुछ नहीं रहता । वैज्ञानिक सत्य उसके लिए महज एक घटना बन कर रह जाता है -विज्ञान बौध्दिक विकास / और भौतिक संवाद ने / बचपन की छोटी छोटी / खुशियाँ छीन लीं / शैशव का विश्वास परिपक्वता का अविश्वास बन जाना / अच्छा नहीं लगता है ...।
विदेशों मे भ्रूण हत्या अधिक ही होती होंगी, कारण दूसरा होगा । हमारे देश में अधिकतर कन्या भू्रण की ही हत्या सुनने को मिलती हैं। यहाँ लोग पुत्र की चाह में कन्या को मारने की साजिश कर लेते हैं । जहाँ सुधा जी रहती हैं वहाँ तो यौन स्वछंदता ही एक कारण प्रतीत होती है । मगर पूरे विश्व में ऐसा हो रहा है कारण जो भी हो । सुधा जी कहती हैं -मैं एक नन्हा सा स्पंदन हूँ मुझ पर यह सितम क्यों स्वयं आया नहीं लाया गया हूँ फिर यह जुल्म क्यों पालने की जगह कूड़ादान दिया । आप चाहें तो इसे स्त्रीलिंग बनाकर पढ लें तो यह कविता भारत की हो जाती है । अभी अभी गुजरात में सोलह भ्रूण कूडेदान से प्राप्त हुए जिनमें अधिकतर कन्याएँ थीं ।
स्त्री सुलभ विचारों की एक बानगी देखिए -राम बने तुम / अग्नि परीक्षा लेते रहे / भावनाओं के जंगल में / बनवास मैं काटती रही / देवी बना मुझे / पुरुषत्व तुम दिखाते रहे / सती होकर सतीत्व की रक्षा मैं करती रही । फिर वही मूल प्रश्न जो सदियों से स्त्री पूछ रही है और जिसका जवाब अभी सदियों तक नहीं मिलने वाला -स्त्री-पुरुष दोनों से सृष्टि की रचना है फिर यह असमान्यता क्यों ?
स्त्री अबला नहीं है यह सत्य है, मगर पुरुष इसे दंभ से निरूपित करता है और स्त्री को कुपित करता है। स्त्री इस आक्षेप को सह नहीं पाती और अपनी वीरता के नए नए उदाहरणों से मर्दों पर कुठाराघात कराती है -ऑंचल में बच्चे को समेटे / मल्लिका सी नाजुक वह / वृक्ष पुरुष को अपने बदन से लिपटाए / मजबूत खड़ी प्रश्न सूचक / आंखों से तकती है / वह कमजोर कहाँ है ।
अमेरिका एक मशीनी देश है जहाँ लोग मात्र कलपुर्जे की तरह व्यवहार करते हैं । जहाँ कलपुर्जे समय समय पर बदल दिये जाते हैं । उनमें संवेदना नहीं होती । भारत में तो हमें अपने बेकार हो चुके कबाड़े से भी अपनेपन का रिश्ता मेहसूस होता है इसलिए हम उन्हें फेंक नहीं पाते । उनमें स्मृतियाँ बसी रहती हैं । अमेरिका में दिल से उतरने पर कोई सामग्री क्या रिश्ते भी फेंक दिए जाते हैं । सुधा जी को वहाँ पहुँचते ही यह एहसास हो गया -एयरपोर्ट पर वह आए / मुस्कराए / एक गौरी भी मुसकुराई / में चकराई / क्या तुम उसे जानते हो ?/ वे बोले / यह देश अजनबियों को हाय / अपनों को बाय कहता है / मैं घबराई कैसे देश में आई ।
आमतौर से साहित्यकार को नास्तिक माना जाता है। ऐसा होता कम ही है । हाँ वह पूजा, इबादत के आडंबरों से दूर रहता है इसलिए एक छद्म आवरण नास्तिकता का ओढ़े प्रतीत होता है । पुराने कवियों ने भगवान खुदा को दैरो हरम में तलाश किया, वह नहीं मिला, मिला तो स्वयं के अंदर ही । सुधा जी ने भी भगवान को वहीं पाया -भगवान शक्ति है / विश्वास है / जो मेरे भीतर है ।
स्त्री पुरुष के रिश्ते कहते हैं कि स्वर्ग में निर्धारित होते हैं । मेरे खयाल में जिस तरह स्वर्ग एक कल्पना है उसी तरह यह उक्ति भी कोरी कल्पना है । वरना तमाम ताम झाम के बाद बाँधे गए रिश्ते के धागे बार बार और कभी हमेशा लिए पूरी तरह क्यों टूट जाते हैं । सच तो यह है कि जिसको एक आदर्श रिश्ता कहा जा सके वैसा कुछ होता ही नहीं.. ... हाँ समझौतों के सहारे घर के अंदर अंदर कोई रिश्ता बरसों बरस तक ढोया जा सकता है । जिसे बाहर वाले लम्बी अवधि तक कायम रहने के कारण आदर्श रिश्ता कह देते हैं । वरना तो वह दोनों इकाइयाँ ही जानती हैं जो कभी नहीं जुडतीं ...। न जुड़ पाना ही मुझे तो अधिक स्वाभाविक प्रतीत होता है ... खैर सुधा जी कहती हैं ... -लकीरें भी मिलीं / ग्रह भी मिले / दिल न मिल सके / मैं औ' तुम हम न हुए ।
एक जगह और वे कहती हैं -स्वाभिमान मेरा / अहम् तुम्हारा / अकड़ी गर्दनों से अड़े रहे हम / आकाश से तुम / धरती सी मैं / क्षितिज तलाशते रहे हम । अर्थात दो अलग अलग व्यक्तित्व फिर समता तलाशना तो निरर्थक ही है न फिर शिकवा शिकायत क्या ।
माँ पवित्र रिश्ता है आज हर शाइर, कवि इस रिश्ते को भुना रहा है । मगर कविता मेलोड्रामाई अंदाज की हो और ग्लीसरीनी ऑंसू कवि कवयित्री बहाने लगे तो कविता अपने निम्न स्तर पर चली जाती है । लेकिन सुधा जी ने माँ के प्रति जो अनुभूतियाँ प्रस्तुत की हैं वह इतनी सहज हैं कि दिल में उतरती प्रतीत होती हैं -क्षण क्षण, पल-पल / बच्चे में स्वयं को / स्वयं में तुमको पाती हूँ / जिंदगी का अर्थ/ अर्थ से विस्तार / विस्तार से अनंत का सुख पाती हूँ / मेरे अंतस में दर्प के फूल खिलाती हो / माँ तुम याद बहुत आती हो।
सुधा जी ने दुनिया भर में घटित होने वाली मार्मिक घटनाओं पर भी पैनी नज़र रखी हुई है कई कविताएँ दूसरे देशों में घटित घटनाओं से उद्वेलित होकर लिखी हैं । जैसे ईराक युध्द में नौजवानों के शहीद होने पर लिखी कविता हो या पकिस्तान की बहुचर्चित मुख्तारन माई को समर्पित कविता, इस सत्य को उजागर करता है कि सहित्यकार वही है जो वैश्विक हालात पर न सिर्फ दृष्टि रखे, बल्कि उद्वेलित होने पर कविता के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सके । इस तरह सुधा जी एक ग्लोबल अपील रखने वाली कवयित्री हैं।
''धूप से रूठी चाँदनी'' में विविधता है, रोचकता है, जीवन के हर शेड मौजूद हैं । जमाने का हर बेढंगापन निहित है । पुरुषों का दंभ उजागर है, महिला का साहस दृष्टिगोचर है । देश विदेश की झाँकियाँ हैं, भारत प्रेम की झलकियाँ हैं, परदेश की सच्ची आलोचना है। रिश्तों की पाकीजगी है, धर्म ईमान बंदगी है । प्रकृति का सजीव चित्रण है, मेरा आप को निमंत्रण है, कि ऐसी पुस्तक जिसमें त्रुटियाँ ढूंढे नहीं मिलतीं, जो स्वरूप में भी असाधरण है, जो विचारों में भी असाधारण है। संग्रह की कविताओं को धारण करें उनके संग संग उनकी लहरों में बहें । मैंने बह कर अकल्पनीय आनंद पाया, अब आपकी बारी है, देखें कैसे सरल सहज भाषा में कविता को अक्षुण रखा गया है ।
5 comments:
आईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !
आचार्य जी
डा. आजम जी ने इस समीक्षा में अपनी अनुभूतियों को विस्तृत शब्द दिए हैं...
अगले महीने आपसे संपर्क करूंगा.
डा. आजम जी की समीक्षा बेहद प्रभावित करती है, सुधा जी को इस पुस्तक के लिए हार्दिक शुभकामनाये.
regards
एक तो कमाल की रचनाएं पहले ही हैं ऊपर से आपकी उत्कृष्ट समीक्षा.. यानि सोने पर सुहागा.. घर आकर जल्दी ही एक कॉपी खरीदूंगा.. आदरणीया सुधा मैम को बधाई..
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