वैदेही की तड़प, उर्मिला की पीर, और मांडवी की छटपटाहट : विरह के रंग (काव्य संग्रह) कवयित्री सुश्री सीमा गुप्ता, समीक्षा श्री रमेश हठीला

विरह के रंग (काव्य संग्रह) ISBN: 978-81-909734-1-0 सीमा गुप्ता

virah ka rang
मूल्य : 250 रुपये प्रथम संस्करण : 2010 प्रकाशक : शिवना प्रकाशन पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट बस स्टैंड, सीहोर -466001(म.प्र.) दूरभाष 09977855399

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पुस्‍तक समीक्षा द्वारा श्री रमेश हठीला

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श्री रमेश हठीला                  शिवना प्रकाशन                 सुश्री सीमा गुप्ता

सुश्री सीमा जी के काव्य संग्रह विरह के रंग का सप्त रंगी  इन्द्रधनुष का यह काव्य गुच्छ सिर्फ शब्दों  का मकड़ जाल नहीं अपितु उस छटपटाती  मकड़ी की अपनी वेदना है, जो स्वयं जाल बुन कर उसमें  उलझ स्वयं को मुक्त करना चाहती है, इनकी रचनाओं में प्यासी मीन सी अकुलाहट, छटपटाहट  है वहीं  स्वाती बूंद को सीपी में समाने की व्याकुलता स्पष्ट दृष्टि गोचर होती है। प्यार  का पुष्प  विरह की समीर बिन सुवासित हो ही नहीं पाता । विरह का रंग, अनुभव  और अनुभूति का वह कल कल करता झरना  है जो कभी ऑंखों  से तो कभी आहों की राह से वेगवती सरिता  सा सागर में समाहित होने मदांध गज की भाँति सबको रोंदता बढ़ता चला जाता है  ।
वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान, इन ध्रुव पंक्तियों का शाश्वत दर्शन होता है विरह के रंग काव्य संकलन में । त्रेता, द्वापर और आधुनिक युग की अनुभूति  का साँगो पाँग दर्शन है विरह के गीत । वैदेही की तड़प, उर्मीला  की पीर, और मांडवी  की छटपटाहट  को ऑंसू के धागे में पिरोने का साहस या तो प्रेम दिवानी मीरा ने दिखाया, या उध्दव समक्ष ब्रज गोपिकाओं ने ।
सीमा जी के विरह के रंग हर संवेदनशील मन को अपने से प्रतीत होते हैं । पाठक पढ़ते पढ़ते स्वयं ही रचनाओं में समाहित हो एकाकार होने लगता है । काव्य कृति को व्याकरण की कसौटी पर न कसते हुए मन की कसौटी पर कसना होगा । क्योंकि जहाँ पर मन होता है वहाँ केवल भावनाएँ होती हैं, न कोई व्याकरण और न व्याकरण की कसौटियाँ । हालाँकि ये बात भी सच है कि व्याकरण की कसौटी पर खरा उतरना ही कविता का  मानदंड होता है, किन्तु,  सीमा जी की कविताएँ आत्मा की छटपटाहट की कविताएँ हैं, और ऑंसू जब बहते हैं तो किसी नियम का पालन नहीं करते  । लेकिन भविष्य में सीमा जी को भावों और व्याकरण के संतुलन पर और ध्यान देना होगा ।
विरह के रंग की कविताएँ वे कविताएँ हैं जिनको पढ़ने वाला जब इनके भावों में डूबता है तो  अनुभव और अनुभूति की मदिर-मदिर रश्मियाँ स्वत: ही अधरों  पर मुखरित हो थिरकने लगती हैं, और विरही मन कह उठता है ।
मुझसे मुँह मोड़ कर तुमको जाते हुए
मूक दर्शक  बनी देखती रह गई
क्या मिला  था तुम्हें मेरा दिल तोड़कर
जि़दगी भर यही सोचती  रह गई 

इसी प्रकार का बिम्ब हमें तुम्हारा  है  रचना में भी दिखाई  पड़ता  है, बानगी देखें 
जो भी है  सब वो तुम्हारा है
यह दर्द कसक दीवाना  पन
यह रोज़ की बेचैनी उलझन 
यह दुनिया से उकताया  मन
यह जागती ऑंखें  रातों में 
तन्हाई में मचलन तड़पन

सीमा जी की रचनाओं में जहाँ राग, अनुराग, वैराग्य का समागम है, वहीं आकाश पर चमकने वाली दामिनी की तड़प, हीर, सोहनी और मीरा की पीर, शब्दों का सैलाब बन कर उन्मुक्त भाव से अपने को अभिव्यक्त कर रही है । एक विचित्र सी प्यास, जिसे हम मृग मरीचिका कहें तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । विरह की वेदना, दग्ध होलिका की भाँति दिखाई तो देती है किन्तु उसे महसूस एक वियोगी  ही कर सकता है । एक काव्य सृजक ही बाँसुरी की वेदना को कल्पना की छैनी से उकेर कर उसे शब्दों में ढाल सकता है, ये बात सीमा जी की कविताओं से पुष्ट होती है । आज अगर प्रेम अजर अमर है तो वह वियोग के बल पर ही है । प्रेम तो परजीवी अमरबेल की भाँति है, वियोग का वृक्ष ही उसे अपने ऊपर आच्छादित किये हुए है । विरह के रंग ये काव्य संग्रह भी प्रेम की लोकप्रियता में वियोग या विरह के महती अवदान की बात की पुष्टि करता है।  सीमा जी के गीत हों या ग़ज़ल  दोनों ही क्षेत्रों  में विरह  की अग्नि समान  रूप से दमकती  है । ग़ज़ल  की बानगी अपनी कहानी  में  देखें
बहुत तलब है बहुत तड़प  है और कसक 
कोई  नहीं है उसका  सानी  सुनती हूँ
एक उदासी  दिल पर मौत  के जैसी थी
लेकिन अब जीने का  ठानी सुनती हूँ

'एक उदासी दिल पर मौत के जैसी थी, लेकिन अब जीने की ठानी सुनती हूँ' इन पंक्तियों में मुश्किलों के घटाटोप तिमिर को कवि मन चुनौती दे रहा है । चुनौती इस बात की, कि जीवन कभी समाप्त नहीं होता । अंधेरा, उदासी ये सारी चीजें समायिक हैं और जीवन इन सबसे ऊपर होता है । वो कभी भी नहीं हारता । इसीलिये तो वो कहता है 'लेकिन अब जीने की ठानी'।  सीमा जी की कविताएँ भले ही विरह की कविताएँ हैं लेकिन इन कविताओं में पराजय का बोध कहीं नहीं है । इन कविताओं में विरह तो है लेकिन वो विरह पलायन का रास्ता नहीं पकड़ रहा है, और न दीनता की ओर अग्रसर होता दिख रहा है, यही तो कृष्ण ने  कहा था अर्जुन से न दैन्यं, न पलायनम । सीमा जी की कविताओं की जो सबसे बड़ी विशेषता है वो यही है और यही एक बात इनकी विरह की कविताओं को सामान्य विरह की कविताओं से अलग करती है । कवि मन हर उदासी को तोड़ देना चाहता है तभी तो कह उठता है-
बेचैनियों को करके दफ्न
दिल के किसी कोने में,
रागिनियों से मन को बहलाया जाए
खामोशी के आगोश से
दामन को छुड़ा कर, ज़रा,
स्वर को अधरों से छलकाया जाए

अंतर्मन, एहसास, तेरे जाने के बाद,  मौन जब मुखरित हुआ, यादों  की पालकी में रचनाकार ने अपने मन की समग्र पीड़ा को कांगा की धरती पर, कलम की पिचकारी बना विरह के रंग से सजाया है । इन कविताओं में एक मौन है, एक विचित्र सी खामोशी है जो कविताओं के समाप्त होने के बाद भी गूँजती रहती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी तो रंफ्तार रेल के गुज़र जाने के बाद पहाड़ों में उसकी प्रतिध्वनि देर तक गूँजती है। ये सन्नाटों की कविताएँ हैं । 
मीनाक्षी जोशी जी द्वारा किसी लेख में लिखी गई बात याद आ रही है जो उन्होंने विरह पर लिखी है ''विरह प्रेम की जागृति है । विरह के पदों में सबसे पहली बात है चारों ओर के वातावरण में सूनेपन, एकाकीपन और विषाद की भावना । वर्षा ऋतु में जब बादल छाते हैं, वज्रपात होता है, अन्धकार भर जाता है, घर सूना रहता है तब नयन और हृदय दुख की जिस घनी छाया में डूबे रहते हैं उसकी अभिव्यक्ति अनुभूति से ही सम्भव होती है । '' मीनाक्षी जोशी जी की बात का उध्दरण यहाँ देने के पीछे प्रयोजन ये है कि सीमा जी कविताएँ उस अनुभूति की अभिव्यक्ति करने में पूरी तरह से सफल रहीं हैं, जिसके बारे में मीनाक्षी जी ने लिखा है ।
सीमाजी  की यह प्रथम  काव्य कृति  है, मातृ  भाषा  हिन्दी  के प्रति  उनका यह अगाध  नेह इसी प्रकार बना रहे, यही माँ वीणापाणी  से कामना है । पाठक  वृंद विरह के रंग को अपना आशीष प्रदान करेंगें, इसी कामना के साथ ।
-रमेश हठीला 
मुकेरी लाइन, सीहोर
मध्यप्रदेश-466001
संपर्क : 09977515484

दीपक चौरसिया की अनुभूतियां की कविताएँ मनन माँग रही हैं - डॉ. मोहम्‍मद आज़म

 

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     -डॉ. मोहम्मद आज़म                 दीपक चौरसिया मशाल

इससे पहले कि मैं दीपक चौरसिया मशाल की शाइरी पर अपना खयाल पेश करूँ मैं आज़ाद नम या छंद मुक्त कविता के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ । गालिब ने कहा था- बकर्दे-शौक नहीं जर्फे-तंगनाए ग़ज़ल, कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये। (बकर्दे-शौक: इच्छानुसार, ज़र्फे-तंगनाए ग़ज़ल: ग़ज़ल का तंग ढांचा, वुसअत: विस्तार ।)
गालिब ही क्यूँ हर शाइर को कभी न कभी यह एहसास होता है वह ग़ज़ल की  पाबंदियों में फंसकर अपनी बात, खुल कर नहीं कह पाता । सिर्फ ग़ज़ल ही क्यों पाबंद नमों में भी कैद महसूस करता है कि वह जो कहना चाहता है वह दिल भर, जी भर कर कह नहीं पा रहा है । शायद इसी उलझन की वजह से मुक्त कविताओं या आज़ाद नमों का सिलसिला शुरू हुआ होगा । इसमें आज़ादी यह रहती है कि कवि अपनी भावनाओं को शब्दों के बेहिसाब गिलाफ पहना कर कांगा पर सजा देता है ताकि दिल का गुबार पूरी तरह से निकल सके ।
दूसरी वजह मुझे यह महसूस होती है कि अकसर कविशाइर ग़ज़लकारी की बारीकियों से भिज्ञ ही नहीं होते, उन्हें आज़ाद नग्‍मों के रूप में भाग निगकलने का रास्ता (यानी राहे फरार) मिल जाता है । अर्थात अपनी कम फहमी को ढाँपने का एक जरिया ।
ऊपरी दोनों दलीलों के ज़रिये मैं कह सकता हूँ कि मुक्त कविताएँ ज़रूरी भी हैं और मजबूरी भी । बहुत से शाइरों ने बेपनाह खूबसूरत और मुकम्मल, दिल पर असर करने वाली, जेहन को झकझोर देने वाली आज़ाद नमें लिखी हैं । जिन्हें पढने के बाद यकीन हो जाता है कि वाकयी यह बातें पाबंद नग्‍मों या ग़ज़लों के माध्यम से कही नहीं जा सकती थीं । फिर गालिब की शिकायत जाया लगती है । मगर क्या कहें कि अक्सर (ज्‍यादातर) ऐसी छंद मुक्त कविताएँ पढने को मिलती हैं जो लिहाज से मुक्त होती हैं.. फन से मुक्त, हुनर से मुक्त, खयालों से मुक्त, असर से मुक्त, तब लगता है कि शाइर वांकयी फने शायरी से राहे फरार इख्तियार कर गया है, यानी भगोड़ा शाइर है । वैचारिक स्तर पर न उसके पास कुछ है और न ही साहित्यिक चेतना ही उसके पास है ।
किसी भी रचनाकार का उद्देश्य सिर्फ पढ़ने वालों पर अपने विचारों का असर छोड़ना ही होता है । अगर उसमें वह कामयाब नहीं है तो सारी मेहनत बेकार है। फिर आज़ाद नमों में सबसे बड़ी खराबी ये होती है उसे पढ़ते वंक्त किसी 'रिद्म' का ना तो आभास होता है औन न ही कुछ ज़ेहन में महफूज़ रहता है, जो कि शायरी की बुनियादी आवश्यकताएँ हैं । वरना तो बेहतर है गद्य लिखा जाए (गद्य भी कुछ लोग इस प्रकार लिखते हैं कि उसमें शायरी का लुत्फ आ जाता है, खैर ।) । इसीलिये आज़ाद नज्‍म का मैं जबर्दस्त प्रशंसक कभी नहीं रहा । नसरी नज्‍म अर्थात गद्यात्मक पद्य कभी कभी तो उल्टी हो जाती है, यानी पद्यात्मक गद्य बन जाती है, अर्थात पद्य ही नहीं रहती  ।
छंद मुक्त कविताओं को इसलिये इस प्रकार लिखा जाना चाहिये कि कि पढ़ने वाला, पढ़ते रहने का पाबंद हो जाए । शुरू करे तो खत्म तक पहुँचकर ही दम ले । वरना होता यह है कि मुक्त कविताओं से पाठक ही मुक्त हो जाता है, यानी कुछ लाइनें पढ़कर भाग खड़ा होता है । इसीलिये ऐसी कविताओं में शब्दों का चयन लाजवाब होना चाहिये और उनकी तरतीब इतनी सुंदर होनी चाहिये कि पाठक एक मोहपाश में बंध जाए और अंत में उसे आभास होना चाहिये कि उसने एक सार्थक रचना पढ़ी है ।
आइये अब बात करते हैं दीपक चौरसिया 'मशाल' की 'अनुभूतियाँ' की । जैसा कि मैं पहले ही जिक्र कर चुका हूँ छंदमुक्त कविताओं का मैं जबरदस्त फैन नहीं रहा इसलिये अक्सर सरसरी नारों से पढ़ता हूँ । 'अनुभूतियाँ' पर भी मैंने इधर उधर से एकाध कविता पर उचटती नार डाली तो मुझे फौरन ही एहसास हो गया कि ये कविताएँ मनन माँग रही हैं, ये गंभीरता चाह रही हैं । इन्हें ऑंख खोलकर नहीं बल्कि दिल व दिमांग खोलकर पढ़ने की आवश्यकता है  । फिर यह हुआ कि यहाँ वहाँ से पढ़ने के बजाए मेरा मन हुआ कि प्रारंभ से अंत तक पुस्तक पढ़ूँ । पहली कविता ने मेरा मन मोह लिया । माँ एक शब्द नहीं माँ एक कायनात है । आजकल तो कवियों और  शाइरों में एक होड़ सी लग गई है और सब इस नाम को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं । क्योंकि माँ हर इन्सान के लिये आदरणीय शब्द है और वह अपनी हस्ती के लिये उसका ही क़र्जदार होता है । मशाल ने भी 'आज भी' तथा 'मुझे तेरी ज़रूरत है' में माँ की महत्ता दर्शायी है ।
दुनिया की हर ऊँचाई  तेरे कदम चूमती है ।
मुहब्बत एक ऐसी अनुभूति है जिससे कोई भी मानव हृदय उद्वेलित हुए बिना नहीं रहा सकता । मशाल की कविताओं में भी मुहब्बत मौजूद है मगर अधिकतर निराशाजनक पहलू के संग । 'कैसे हो' कविता में उनकी निराशा उनके और उनकी प्रेयसी में मौजूद विसंगतियों के कारण है ।
'महकती हुई भीनी खुश्बू सी तुम  और बिखरी हुई ख्वाहिश सा मैं  तुम अंबर में उड़ना चाहते  मैं ज़मीं से जुड़ना चाहता  मुहब्बत मुमकिन कैसे हो ।'
कवि मन अत्यंत भावुक होता है । कवि के निकट सबसे निंदनीय कृत्य इंसानों द्वारा इंसानों पर अत्याचार होता है । वह समाज को संदेश देता है, भाईचारे को सर्वोपरि बताता है, उसका ध्येय सिर्फ  एक सुंदर एवं स्वस्थ समाज की संरचना, एक बेहतर विश्व की कल्पना होता है । यही कबीर, रहीम, मीर, ंगालिब और तमाम प्रसिध्द एवं अप्रसिध्द शायर व कवि कह गये हैं । मशाल ने भी यह प्रयास किया है । 'नये सिरे से' में कहते हैं-
देव बसते थे कभी यहाँ पर  अब शैतानों की बस्ती है जीवन का कोई मूल्य नहीं और मौत मुंफ्त में बँटती है  नये सिरे से सोचें अब हम ।
जीवन क्या है यह क्यूँ है ऐसे सवाल मनुष्य के मन में आते रहते हैं । जन्म लेना, उम्र गुजारना, फिर मर जाना बाद में खप जाना, यह क्या सिलसिला है ? अनंत काल से चलता आ रहा है । इंसान मौलिक प्रश्‍न से उलझा रहा है ..जीवन क्या है । मशाल ने बड़ी कामयाबी से राज़ खोल दिया है, बड़ी आसानी से 'शीर्षक' में कहते हैं क्योंकि जीवन कविता नहीं एक पहेली है और पहेली का कोई शीर्षक नहीं होता ।
कविता लिखना इतना आसान नहीं होता, कई बार तो कवि को उसी अवस्था से ग़जारना पड़ता है जिनसे बच्चे को जन्म देते समय माँ को ग़ुजारना होता है । प्रसव पीड़ा से इसकी समानता दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । 'थकावट' में यह पीड़ा महसूस की जा सकती है ।
विदेश में रहकर भी भारत की मौजूदा राजनैतिक वातावरण से विचलित है, इस बात से खिन्न है कि बजाए देश को प्रगति के पथ पर ले जाने के प्रयास करने के, लोग मंदिर मस्जिद में उलझकर देश का सत्यानाश कर रहे हैं । वह इसे राजनैतिक पतन मान रहे हैं ।
कई संबंध मात्र समझौतों के बलबूतों पर चलते हैं । दो व्यक्ति सम स्वभाव के हो नहीं सकते इसीलिये मेरे विचार से संबंधों में विश्वास से कहीं यादा समझौतों की आवश्यकता है । सामंजस्य तभी बनेगा, संबंध तभी नहीं टूटेगा । कुछ संबंध इतने उलझे होते हैं कि उन्हें चाहकर भी तोड़ नहीं सकते, दूसरे शब्दों में उन्हें झेलना ही पड़ता है । मशाल ने 'समझौता' में यही बात निहायत बेबाकी से कह दी है ।
जब किस्मत में उनके साथ रहना लिखा है तो क्यों न  उनसे समझौता कर लूँ ।
दरअस्ल 'अनुभूतियाँ' में उन्होंने अपनी तमाम अनुभूतियों को अक्षरों एवं शब्दों के माध्यम से पेश कर दिया है । हर विषय के रंगों से शाइरी के कैनवस को रंगीन कर दिया है । इनके यहाँ अगर गम, दर्द, विरक्ति, निराशा मजबूरी, समझौतों के धुंधले और काले शेड दिखते हैं तो वहीं प्रसन्नता, आशा की बेहद चमकदार किरणें भी नार आती हैं । इनमें लिखने की ललक प्रतीत होती है । इनमें कसक, तड़प, सच्चाई, बंगावत, आग, जबात, इश्क, तहज़ीब, देशभक्ति, तंज व व्यंग्य, रिश्तों की पाकीज़गी का ध्यान आदि आदि तमाम वह गुण हैं जो एक व्यक्ति को कवि शाइर का दरजा प्रदान करते हैं । मेरी बस एक सलाह है कि निरंतर फन के उस्तादों को पढ़ते रहें और निरंतर कुछ नया गढ़ते रहें । उनमें योग्यता है बाकी रियाज़ जारी रखें तो मुझे विश्वास है उन्हें एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हो जाएगा ।
टी.एस. इलियट ने कहा था 'रचनाकार को निरंतर प्रयासरत रहना चाहिये न जाने कब उसके दिल दिमाग की कोई खिड़की खुल जाए और अपने को व्यक्त करने का कोई रास्ता मिल जाए ।'
इस  आशा के साथ कि भविष्य में उनकी रचनाएँ और प्रकाशित होती रहेंगीं और वह एक स्थापित कवि बन जाएँगे (यह कोई दुआ नहीं है बल्कि उनकी संभावनाओं को समझकर किया गया उद्गार है ) अनुभूतियाँ के लिये उन्हें मुबारकबाद प्रेषित करता हूँ । 

शिवना प्रकाशन के होली परिशिष्ट का विमोचन

साहित्यिक संस्था शिवना प्रकाशन द्वारा होली के अवसर पर प्रकाशित होली परिशिष्ट होली का हंगामा का विमाचन जिला जनसम्पर्क अधिकारी श्री एल आर सिसौदिया ने किया । कार्यक्रम की अध्यक्षता गल्ला व्यापारी संघ के अध्यक्ष श्री कैलाश अग्रवाल ने की विशिष्ट अतिथि के रूप में वरिष्ठ पत्रकार श्री रामनारायण ताम्रकार तथा बैंक कर्मी श्री उमेश शर्मा उपस्थित थे ।
शिवना प्रकाशन द्वारा होली के पर्व को लेकर एक परिशिष्ट का प्रकाशन साहित्यकार श्री रमेश हठीला के संपादन में किया गया है । इस परिशिष्ट में होली को लेकर उपाधियां तथा अन्य सामग्री का प्रकाशन किया गया है । होली का हंगामा नाम से प्रकाशित इस परिशिष्ट के सहायक संपादक श्री पंकज सुबीर तथा श्री अनिल राय हैं । इस परिशिष्ट का विमोचन पी सी लैब पर आयोजित एक समारोह में किया गया ।

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सर्वप्रथम अतिथियों ने मां सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया तथा गुलाल अर्पित की । तत्पश्चात अतिथियों का स्वागत पुष्प माला से डॉ आजम, सनी गोस्वामी, हरिओम शर्मा दाऊ ने किया ।

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सोनू ठाकुर ने सभी अतिथियों को अबीर गुलाल का तिलक कर सभी उपस्थितों का स्वागत किया ।

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परिशिष्ट का विमोचन संपादक रमेश हठीला तथा सह संपादक अनिल राय ने अतिथियों के कर कमलों से संपन्न करवाया ।

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परिशिष्ट के बारे में बोलते हुए पत्रकार शैलेश तिवारी ने होली की परंपरा के निर्वाहन के लिये निकाले गये इस अंक पर विस्तार से प्रकाश डाला । मुख्य अतिथि श्री एल आर सिसौदिया ने कहा कि शालीन हास्य के माध्यम से होली के अवसर पर शहर के गणमान्य नागरिकों को उपाधियां देने की एक शिष्ट परंपरा रही है जिसका शिवना ने सीहोर में निर्वाह किया है ।  श्री रामनारायण ताम्रकार ने कहा कि शिवना प्रकाशन ने होली का हंगामा प्रकाशित कर उस कमी को पूरा करने की कोशिश है जो पिछले कुछ सालों से बन गई है । श्री उमेश शर्मा ने होली का हंगामा की मुक्त कंठ से सराहना करते हुए अंक  को सामयिक बताया । अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री कैलाश अग्रवाल ने कहा कि साहित्यकारों ने होली को अपनी कलम के माध्यम से और रंगीन कर दिया है । उन्होंने होली के हंगामा को शिवना प्रकाशन द्वारा शहर के गणमान्य नागरिकों के साथ खेली गई शालीन होली निरूपित किया । अंत में शिवना के श्री हरीओम शर्मा दाऊ ने आभार व्यक्त किया । कार्यक्रम का संचालन पंकज सुबीर ने किया  । कार्यक्रम में  राजकुमार गुप्ता, अनिल पालीवाल,  प्रदीप समाधिया,  हरीओम शर्मा, राजेंद्र शर्मा,  चंद्रकांत दासवानी,  जयंत शाह,  हितेन्द्र गोस्वामी, सुनील भालेराव,  सूर्यमणी शुक्ला,  संजय धीमान, सुनील शर्मा,  नरेश तिवारी,  बिल्लू समाधिया,  सोनू ठाकुर, सुरेंद्र राठौर,  मनोज मामा,  सनी गोस्वामी, सुधीर मालवीय आदि प्रमुख रूप से उपस्थित थे ।