सुशीला जी को राष्ट्रप्रेम विरासत में मिला है।

chalo shanti ki or new3 सम्भवत: एक वर्ष पूर्व श्री मथुरा प्रसाद महाविद्यालय कोंच में आयोजित सेमिनार की अध्यक्षता के सिलसिले में कोंच जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वहीं से डॉ0 गीतान्जलि के आवास पर गया। डॉ0 गीतान्जलि ने अपनी माँ से मेरा परिचय कराया। परिचय के दौरान मैंने कर्तव्यपरायणता कीर् मूत्तिा से साक्षात्कार किया। 38 वर्ष की अवस्था में विधि की मार से आहत वैधव्य को स्वीकार करके, अपने ग्रहस्थ धर्म का निर्वाह करते हुए अपने बच्चों के लालन पालन में अपने को होम देने वाली कर्मठ विदुशी श्रीमती सुशीला अग्रवाल के हृदय के अन्दर के कवि को देखकर मैं विस्मृत रह गया। उनके अन्तस्थल से काव्य की जो निर्झरणी बही तो 'चलो शान्ति की ओर' का निर्माण हो गया।
शुचिता से परिपूर्ण 'श्रुतिजी' ने प्रथम पूज्य श्रीगणेश जी की वन्दना की और अपने जीवन में 'शुभ लाभ' भर लिया। भ्रम के जाल में न फंसते हुए माँ सरस्वती से अपनी 'बुध्दि की प्रखरता' का वरदान प्राप्त कर लेने वाली आदरणीया सुशीला भाभी के इस काव्य संग्रह में भिन्न भिन्न कविताओं का अनुपम संकलन है। कहीं 'ध्येय की आराधना में ज्ञेय ही बस साध्य बना' तो कहीं जीवन की यर्थाथता से यूं परिचय हुआ -
'नश्वर है सबका ही जीवन
नहीं अमरता है तुमको'
सुशीला भाभी का यह काव्य संग्रह जीवन की इन्द्रधनुषी छटा को अपने अंक में समेटे हैं। पारिवारिक जीवन में पति विछोह की टीस असहनीय होती है, परन्तु उस पर बस भी किसी का नहीं चलता-प्राण कैसे देह से क्यूं गये निकल
ठगी सी देखती रह गई निकल
थाम न पाई थी मैं इन बाहु से
थाम कर जिनको ये लाये गेह पर'
जीवन की इस आपाधापी में दुख सुख को सीधी सच्ची बात के रुप में कहते हुये भविष्य के कर्तव्य का बोध दृष्टव्य है -
मन का ही गाना है, मन का ही रोना।
फिर भी अरमान ने, मन में संजोना॥
कवियत्री के मन में समाज के दुर्बल वर्ग की सीत्कार के शब्द जो नेत्रों से बहे, वे सिन्धु हो गये -
दीन दुखियों के दृगों से, अश्रु कुंठा के बहे हैं
स्वाद जिनका नुनखरा, वह सिन्धु गहरा बन गया है।
भाभी जी को राष्ट्रप्रेम विरासत में मिला है। तभी तो इस संग्रह में माँ भारती के पुत्रों की हार्दिक अभिलाषा व्यक्त करते हुये कहा गया है -
फूल गेंदा, गुलाब, चमेली के हम,
सिक्ख, हिन्दू, मुसलमान हैं फारसी
तेरी माला में सब मिलकर गुथते रहें
हार बन कर हिय में संवरते रहें
तेरे चरणों में तन मन निछावर रहे।
अनेकता में एकता की मिसाल से ओतप्रोत इस भारत देश के विकास के लिये शिक्षा एक ऐसी पायदान है जिसे दर किनार नहीं किया जा सकता। तभी तो भारत मां के पुत्रों का आवाह्न करते हुये कवियत्री का कथन है -
डगर डगर और गांव गांव में, ज्ञान के दीप जलायें
गूंजे फिर जय विश्व शान्ति का, सुने कहीं न क्रन्दन
सच्चे अर्थों में तब होगा, भारत मां का वन्दन।
सच्चे धर्मों में तब होगा, भारत मां का वन्दन।
इसी के साथ सुशीला भाभी ने वर्तमान समाज की वास्तविकता को भी उजागर करते हुये लिखा है -
यहां न्याय बिकता और ईमान बिकता
यहां धर्म बिकता और इन्सान बिकता
स्वार्थों के हाथों में समता सिरानी
सुनाते हैं हम अपनी दर्दे कहानी।
दर्दे कहानी के कारणों के निराकरण की राह भी कवियत्री सुझाते हुये कहती है -
फल की आशा न हो मन में, ऐसा कर्म करो प्यारे।
निष्काम कर्म करके भी बन सकते, जग के उजियारे॥
मन के भावों की सीधी सच्ची भाषा में अभिव्यक्ति ही कवियत्री के गीतों की विशेषता है। यह गीत संग्रह अतृप्त आकांक्षाओं की तृप्त परिणति है।
आदरणीया सुशीला भाभी जी की यह सृजन साधना अविरल, पापनाशिनी गंगा बनकर, बहती रहे, यही परमपिता परमेश्वर से विनती है।
मेरी कोटिश: मंगलकामनायें।
                    -डॉ0 हरीमोहन पुरवार
संयोजक
भारतीय सांस्कृतिक निधि उरई अध्याय, उरई
दिनांक- 4 फरवरी 2010

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